कुछ इस तरह रहा पानीपत मूवी का रिव्यू

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कुछ इस तरह रहा पानीपत मूवी का रिव्यू

Sakshi Dobriyal 05-12-2019 16:55:35

रेखा खान
इतिहास को फिल्मी परदे पर रचने में निर्देशक आशुतोष गोवारिकर को मास्टरी हासिल है। इस बार भी अपनी महारथ के अनुरूप वे पानीपत के रूप में इतिहास से पानीपत के उस तीसरे युद्ध को लाए हैं, जिसमें शौर्य, जांबाजी, प्रेम, बलिदान सभी कुछ है। पानीपत का तीसरा युद्ध इतिहास में मराठा और मुगल साम्राज्य के लिए बहुत अहम स्थान रखता है। आशुतोष गोवारिकर ने उस अध्याय को सिनेमैटिक लिबर्टी के साथ न्याय देने का पूरा प्रयास किया है।


कहानी: सदाशिव राव भाऊ (अर्जुन कपूर) अपने चचेरे भाई नाना साहब पेशवा (मोहनीश बहल) की सेना का जांबाज पेशवा है। फिल्म के पहले सीन में ही वह युद्ध में विजयी होकर लौटता है और नाना साहब पेशवा के दरबार में उसका सम्मान किया जाता है। उदगीर के निजाम को परास्त करने के बाद जब सदाशिव राव भाऊ का रसूख और ख्याति दरबार में बढ़ती है, तो पेशवा की पत्नी गोपिका बाई (पद्मिनी कोल्हापुरे) इस बात को लेकर असुरक्षित हो जाती है कि कहीं गद्दी का वारिश सदाशिव न बन जाए। वह अपने पुत्र विश्वास राव (अभिषेक निगम) को गद्दीनशीन देखना चाहती है। यहां राज वैद्य की बेटी पार्वती बाई (कृति सेनन) सदाशिव से प्रेम करने लगती है और जल्द ही वे विवाह के बंधन में बढ़ जाते हैं। दूसरी तरफ सदाशिव के प्रभाव को कम करने के लिए उसे युद्ध से हटाकर धनमंत्री बना दिया जाता है। तभी दिल्ली की गद्दी को हथियाने के लिए नजीब उद्दौला (मंत्रा) अफगानिस्तान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली (संजय दत्त) के साथ हाथ मिलाता है। ऐसे समय
में दिल्ली की गद्दी और देश को बचाने के लिए मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिव राव भाऊ को सौंपा जाता है। वहां अहमद शाह अब्दाली शुजाउद्दौला (कुनाल कपूर) के साथ मिलकर मराठाओं और भारत के तमाम राजाओं के खिलाफ मोर्चा खोल देता है। पानीपत के मैदान में सदाशिव और अब्दाली की जंग के बीच वीरता और शौर्यता के साथ-साथ विश्वासघात भी परवान चढ़ता है।


रिव्यू: निर्देशक के रूप में आशुतोष गोवारिकर ने इतिहास के उस जटिल अध्याय को चुना है, जहां सत्ता के लिए पीठ पर खंजर भोंकना आम बात थी। पेशवा शाही की अंदरूनी राजनीति के साथ-साथ दिल्ली की जर्जर होती स्थिति और अपने निजी स्वार्थों के लिए देश की सुरक्षा को दांव पर लगाने वाले राजाओं के साथ आशुतोष ने उन वीरों की शौर्यगाथा का भी चित्रण किया है, जो देश की आन-बान के लिए शहीद हो गए थे। ऐतिहासिक फिल्म होने के कारण किरदारों की भरमार है, तो कई जगहों पर फिल्म लंबी और खिंची हुई लगती है। एडिटिंग धारदार होनी चाहिए थी। फिल्म के कई डायलॉग्ज मराठी में होने के कारण अमराठी भाषियों को दिक्कत हो सकती है। युद्ध के दृश्य आशुतोष की खासियत रहे हैं और यहां भी वे रणभूमि की बहादुरी और बर्बरता को दर्शाने में कामयाब रहे हैं, मगर अर्जुन और संजय दत्त के वॉर दृश्यों का न होना खलता है। फिल्म की भव्यता में निर्देशक ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। नितिन देसाई का आर्ट डायरेक्शन और नीता लुल्ला का कॉस्ट्यूम इस तरह के पीरियड ड्रामा के लिए प्लस पॉइंट साबित होता है। सीके मरलीधरन की सिनेमटोग्राफी ने इतिहास के उस दौर को खूबसूरती से कैप्चर किया है। अजय-अतुल के संगीत में 'सपना है सच है' गाना मधुर बन पड़ा है।

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