अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: कहते है कि “गरीबी बहुत-सी आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है इसलिए गरीबी की समस्या को हल करने के लिए स्वयं गरीबी की संकल्पना से परे जाना होगा। यह जानना काफी नहीं कि कितने लोग गरीब है, बल्कि यह जानना महत्वपूर्ण है कि गरीब लोग कितने गरीब है.
भारत में गरीबी का जारी रहना एक बड़ी चुनौती है गरीबी का सम्बन्ध केवल आय या कैलोरी से जोड़कर करना सही नहीं होगा, बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि लोगों कि बीमारियों से कहाँ तक रक्षा हो पाई है, उनके लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, व रोजगार की सुविधाओं का विस्तार करना होगा. यदि निर्धनता और गरीबी की बात करे तो देश में कोरोना की पहली और दूसरी लहर ने तबही मचा दी थी, जिसके बाद से बहुत से लोगों को अपनी जान के साथ-साथ गरीबी का सामना करना पड़ रहा है।
बता दे कि नीतिआयोग की ओर से जारी की गई पहली मल्टी डाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स (एमपीआई) रिपोर्ट जहां अलग-अलग राज्यों के हालात का ब्योरा देती है, वहीं नीति निर्धारकों के लिए एक नई और बेहतर कसौटी भी मुहैया कराती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, अगर 51.9 फीसदी गरीब आबादी के साथ बिहार गरीब राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है औऱ 0.71 फीसदी गरीब आबादी के साथ केरल सबसे नीचे तो अपने आप में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऊपर और नीचे के कुछ और राज्य देखें तो अपेक्षा के अनुरूप ही बिहार के साथ झारखंड, यूपी और मध्य प्रदेश खड़े मिलते हैं, जबकि केरल के साथ गोवा, सिक्किम और तमिलनाडु। साफ है कि आम लोगों तक आवश्यक सुविधाएं पहुंचाने और उनका जीवन स्तर ऊंचा करने के मामले में कुछ राज्यों ने उल्लेखनीय सफलता पाई है, जबकि कुछ अन्य राज्य इस मामले में बहुत पीछे हैं। मगर इसका ठीक-ठीक अंदाजा हमें पूंजी निवेश या प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से नहीं मिलता। इसलिए ऐसे खास मानकों की जरूरत होती है, जिससे पता चले कि विभिन्न सरकारों द्वारा शुरू की गई और चलाई जा रही योजनाओं और नीतियों का जमीन पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ रहा है, उससे आम
नागरिकों के जीवन में किस तरह के और कितने बदलाव आ रहे हैं।
इस संदर्भ में नीति आयोग की यह मल्टी डाइमेंशनल इंडेक्स रिपोर्ट अहम हो जाती है। हालांकि इसके लिए जरूरी आंकड़े नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की 2015-16 की रिपोर्ट से लिए गए हैं और इस लिहाज से ये पांच साल पहले के हालात का ब्योरा पेश करते हैं। लेकिन इसकी असल अहमियत इसकी मेथडॉलजी में निहित है। एमपीआई समान महत्व के तीन कारकों- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर- के आधार पर स्थिति का आकलन करता है और इसके लिए 12 इंडिकेटर्स का उपयोग हुआ है। यह महज गरीबी रेखा के आधार पर गरीबी नापने के पारंपरिक तरीके से निश्चित रूप से अलग है। यह 2015 में 193 देशों द्वारा अपनाए गए सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (एसडीजी) के वैश्विक फ्रेमवर्क के अनुरूप है। जहां तक पिछले पांच साल के दौरान हुई प्रगति का सवाल है तो जैसा कि नीति आयोग का कहना है, एनएफएचएस के ताजा सर्वे के सभी आंकड़े जारी होने के बाद इसके आधार पर बनाई जाने वाली दूसरी एमपीआई रिपोर्ट में वह भी कवर हो जाएगी, लेकिन असली चुनौती केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह है कि वे अपनी नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों को नीति आयोग द्वारा मुहैया करवाई गई इस कसौटी पर कसते हुए आगे बढ़ें। चाहे देश में पूंजी निवेश बढ़ाने की बात हो या जीडीपी की रफ्तार तेज करने की, इन सबका आखिरी हासिल तो यही होता है कि उससे देश के सामान्य लोगों के जीवन तक कितनी सुविधाएं पहुंचीं, उसमें कितनी क्वॉलिटी आ सकी। इसलिए यह भी जरूरी है कि सरकार की उपलब्धियों को ऐसे मानकों पर कसने का सिलसिला किसी वजह से थमने न दिया जाए। साथ ही प्रत्येक वर्ग की उन्नति के लिए अलग निति बनाई जाए। सरकार को गरीबों के कल्याण के लिए आर्थिक नीतियाँ बनाई जाएँ तथा अमीरों और पूंजीवाद को बढावा देने वाली नीतियों में बदलाव लाया जाए, ताकि गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को पाटा जा सके और हमें गरीबी के कलंक से छुटकारा मिल सके और गाँधी जी के भारत नवनिर्माण का सपना साकार कर सकें।
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