अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: भारत दुनियां के बड़े देशों में से एक है यह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जनआबादी का देश हैं। वैसे तो आधुनिक समय में जैसे जैसे हम विकास की बुलंदियों तक पहुंच रहे है, परंतु हम धरातल पर हो रही नकामियों को नजरअंदाज कर रहे है। आजादी के 75 साल बाद इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि हमारे देश में भूख से दो-चार लोगों की त्रासदी पर अदालतों को निर्देश देना पड़ रहा है। हैरानी की बात यह है कि जिस समस्या से लड़ना और उसे खत्म करना सरकार की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए थी, आज भी वह इस मसले पर सवालों के कठघरे में खड़ी है। यह हालत तब है, जब देश में सरकार की बुनियाद ही लोक कल्याणकारी सिद्धांतों पर टिकी हुई है। लेकिन आंकड़ों से लेकर जमीनी तस्वीर तक यह बताती है कि भूख से मौतों को लेकर सरकारें कितनी फिक्रमंद रही हैं।
बता दे कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2021 ने भारत को 116 देशों में से 101वां स्थान दिया है। 2020 में भारत 107 देशों में 94वें स्थान पर था। 2021 की रैंकिंग के अनुसार, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल ने भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है। सहायता कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी का संगठन वेल्ट हंगर हिल्फ की ओर से संयुक्त रूप से तैयार की गई रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को 'चिंताजनक' बताया गया है।
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ लहजे में कहा कि भूख से एक भी मौत न हो, यह सुनिश्चित करना एक लोक कल्याणकारी सरकार का दायित्व है। हो सकता है कि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए फिर से मौजूदा या नए उपायों पर काम करने की बात करे, लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी एक लोकतांत्रिक सरकार को असहज करने के लिए काफी नहीं है? अदालत ने केंद्र सरकार को अंतिम अवसर के रूप में विभिन्न राज्य सरकारों से विचार-विमर्श कर सामुदायिक रसोई पर अखिल भारतीय नीति तैयार करने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया।
जाहिर है, सामुदायिक रसोई जैसी व्यवस्था उन लोगों के लिए एक बड़ी राहत साबित हो सकती है, जो किन्हीं वजहों से अपना और अपने
परिवार का पेट भर पाने में नाकाम होते हैं। अगर ऐसे लोगों के पास आय का नियमित जरिया हो, तो शायद उन्हें महज भूख मिटाने के लिए किसी व्यक्ति या सरकारी कार्यक्रम पर निर्भरता की जरूरत नहीं पड़ेगी। अदालत ने सरकार के लिए यह उचित टिप्पणी की है कि अगर आप भूख का खयाल रखना चाहते हैं, तो कोई संविधान, कोई कानून आपको मना नहीं करेगा।
विचित्र है कि जब इस मसले की गंभीरता की ओर ध्यान दिलाया जाता है, तब अक्सर सरकार आनन-फानन में कुछ चिह्नित तबकों के लिए सीमित अवधि की खातिर अनाज वितरण के किसी नए कार्यक्रम की घोषणा कर देती है, लेकिन समस्या की जड़ों के तौर पर भूख से दो-चार लोगों और समूहों के लिए नियमित रोजगार और आय के अभाव के बारे में सोचना और उसे दूर करने को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखता। जबकि औपचारिक महत्त्व की आधी-अधूरी पहलकदमी के नतीजे समस्या के दीर्घकालिक और ठोस समाधान नहीं हो सकते।
अदालत में अटार्नी जनरल ने यह आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनिनियम के ढांचे के भीतर कुछ काम किया जा सकता है और अदालत ने भी इससे सहमति जताई कि योजना के लिए वैधानिक ढांचा होना चाहिए, ताकि नीति में बदलाव पर इसे बंद नहीं किया जा सके। यह ध्यान भी रखने की जरूरत है कि जब तक राज्यों को किसी भी योजना में शामिल नहीं किया जाता है, तब तक किसी योजना के अमल में कामयाबी हासिल नहीं की जा सकती।
सवाल यह है कि नागरिकों को भोजन का अधिकार देने वाले कानून के लंबे समय से लागू होने के बावजूद आज भी देश में भूख से होने वाली मौतें चिंता का विषय क्यों बनी हुई हैं! दरअसल, अब तक सरकारों का जो रुख रहा है, अगर उस पर गौर किया जाए तो यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता है कि भूख से मौतों की समस्या देश में अनाज, संसाधनों की कमी की वजह से है या फिर यह सरकारों की इच्छाशक्ति और अदूरदर्शिता का नतीजा है! सरकार को यह सोचना होगा कि आखिर किन वजहों से कुपोषण के मामले में बदतर हालत में होने के साथ-साथ वैश्विक भुखमरी सूचकांक में हमारा देश एक सौ सोलह देशों की सूची में एक सौ एक वें स्थान पर क्यों है!
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