अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: देश के विभिन्न राज्यों में तीन लोकसभा और 29 विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनाव के नतीजे गहरे निहितार्थ लिए हुए हैं। खासकर हिमाचल प्रदेश के परिणाम केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए सुखद नहीं रहे। पार्टी न सिर्फ लोकसभा की अपनी मंडी सीट कांग्रेस के हाथों गंवा बैठी, बल्कि विधानसभा की तीनों सीटों पर भी कांग्रेस के उम्मीदवारों ने कब्जा कर लिया। गौरतलब है कि अगले ही साल वहां विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, और इन उपचुनावों को सेमीफाइनल के रूप में देखा जा रहा था। हिमाचल के ये परिणाम इसलिए भी खासे अहम हैं कि इसके पड़ोसी प्रदेशों पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी अगले साल के पूर्वाद्र्ध में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस करारी हार के लिए यदि महंगाई को उत्तरदायी ठहराया है, तो इसे बचाव का बयान नहीं समझा जाना चाहिए। यह सही है कि महंगाई लोगों के दैनंदिन जीवन पर असर डालने लगी है और इसके लिए यहां पेट्रोल-डीजल या खाद्य पदार्थों के दाम याद दिलाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र से भी अच्छी खबर नहीं आई है, और न ही वह कर्नाटक के परिणाम से बहुत संतोष कर सकती है, जहां कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के गृह जिले की सीट भाजपा से छीन ली है। भाजपा के लिए सुखद खबरें असम और मध्य प्रदेश से हैं, जहां उसका जलवा बरकरार है। असम में बिखरे हुए विपक्ष ने भाजपा का काम आसान कर दिया और उसके नेतृत्व में सत्तारूढ़ गठबंधन ने वहां एकतरफा जीत हासिल की है, तो वहीं मध्य
प्रदेश में भी उसकी मजबूत पकड़ बनी हुई है। हालांकि, लोकसभा की तीन सीटों में से दो पर कांग्रेस और उसकी सहयोगी शिव सेना की जीत से विपक्ष का हौसला बढे़गा, और एनडीए इस परिणाम को नजरअंदाज नहीं कर सकता। यकीनन, लोकसभा में अंकगणित पर इससे कोई खास असर नहीं पड़ने वाला, पर ये परिणाम लोगों की आकांक्षाओं को परिलक्षित तो करते ही हैं।
अमूमन, उपचुनावों में राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों का दबदबा होता है, और इस चुनाव में भी हिमाचल और कर्नाटक को छोड़ दें, तो आम तौर पर यही रुख दिखा है, मगर बिहार की दो सीटों को जिस तरह से राजद ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था, उनके परिणामों में तेजस्वी यादव के लिए गहरे संदेश हैं। उन्होंने लालू यादव तक को इन सीटों के चुनाव प्रचार के लिए उतार दिया था, लेकिन वह अपने गठबंधन को एकजुट नहीं रख पाए। अब चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि कांग्रेस के भी चुनाव लड़ने और दोनों दलों के नेताओं की आपसी तू तू-मैं मैं को मतदाताओं ने सहजता से नहीं लिया है।
बिहार में एक तरफ सत्तारूढ़ गठबंधन मजबूती से साथ था, तो दूसरी तरफ राजग में फूट थी। राजनीति में रणनीतिक जीत के लिए कई बार कुछ कदम पीछे हटना पड़ता है, और इसकी मिसाल 2015 में खुद राजद-जद(यू)-कांग्रेस गठबंधन ने पेश की थी। इसका लाभ महागठबंधन को मिला भी था। सियासत जोश के साथ होश की भी मांग करती है, भाजपा की असम विजय इसकी बानगी है। उपचुनावों के परिणाम जहां कांग्रेस को बता रहे हैं कि मध्य प्रदेश क्यों उसके लिए मुश्किल है, तो भाजपा को महंगाई, किसान आंदोलन को गंभीरता से लेने के लिए आगाह भी कर रहे हैं।
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