लोकतंत्र बहाली ना करे, वरना बहिष्कार झेले

तीर्थन घाटी के भिंडी थाच में शहीद लगन चन्द मेमोरियल कप सीजन-4 का सफल समापन। युवा मतदाता संवाद कार्यक्रम का आयोजन तीन नए आपराधिक कानूनों पर रायपुर में हुई कार्यशाला उत्तराखंड : केदारनाथ यात्रा के दौरान घोड़े-खच्चरों के स्वास्थ्य की जांच के लिए डॉक्टरों की तैनाती सोशल मीडिया पर पुलिस वर्दी में ’गैर पुलिसिंग मुद्दों’ पर वीडियो अपलोड करने वाले पुलिसकर्मियों पर सख्त कार्रवाई-राजस्थान स्पाइनल मस्क्यूलर एट्रॉफी इंजेक्शन-राजस्थान एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय-रिजल्ट पेशाब में प्रोटीन आने का कारण भोपाल गैस त्रासदी-सुनवाई बिलासपुर पुलिस ने एक युवक और दो नाबालिगों को प्रतिबंधित नशीले इंजेक्शन के साथ किया गिरफ्तार आइपीएल सट्टे में लाखों का दाँव लगाने वाले तीन सटोरिये पकड़े गए शराब और नकदी बरामद मोहला-मानपुर के ग्राम संबलपुर में नवीन पुलिस कैंप की स्थापना मल्लिकार्जुन खड़गे ने की गोरखपुर में जनसभा मतदान प्रतिशत हेतु जन जागरण कार्यक्रम चित्रकूट आज का राशिफल हापुड सड़क हादसे में 6 लोगों की मौत,एक गंभीर ब्लड चढ़ाने से गर्भवती और दो नवजात की मौत सीकर : भारतीय शिक्षण मंडल के 55वें स्थापना दिवस पर व्याख्यानमाला आयोजित ऊंची उड़ान का“ कार्यक्रम की तिथि आगे बढ़ी

लोकतंत्र बहाली ना करे, वरना बहिष्कार झेले

Anjali Yadav 30-10-2021 17:30:04

अंजलि यादव,          
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,          


नई दिल्ली: दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन आसियान का उनतालीसवां शिखर सम्मेलन सदस्य देश म्यांमा की गैर-मौजूदगी में संपन्न हो गया। ऐसा नहीं कि म्यांमा इसमें शिरकत नहीं करना चाहता था, लेकिन आसियान संगठन ने ही उसे सम्मेलन से दूर रखा। म्यांमा के सैन्य शासक मिन आंग लेंग के लिए यह एक बड़ा झटका है। म्यांमा को आसियान का यह स्पष्ट संदेश है कि लोकतंत्र के बिना क्षेत्रीय सहयोग संभव नहीं है। हालांकि म्यांमा को लेकर आसियान सदस्य देशों में भी एक राय नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक प्रभाव वाले सदस्य देशों ने म्यांमा के सैन्य शासन को साफ संकेत दे दिया है कि जब तक वह लोकतंत्र बहाली के लिए कदम नहीं उठाता, तब तक उसे ऐसा बहिष्कार झेलना पड़ सकता है। इस बार आसियान की सालाना बैठक इस लिहाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण रही कि बैठक को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी संबोधित किया। उन्होंने अपने भाषण में चीन और म्यांमा की नीतियों को लेकर चिंता जताई।

इस साल के शुरू में म्यांमा में हुए तख्तापलट के बाद ही आसियान के कुछ सदस्य देशों ने म्यांमा के घटनाक्रमों को लेकर सैन्य शासन के प्रति नाखुशी जाहिर की थी। बेशक म्यांमा में सैन्य शासन उसका अंदरूनी मामला हो, पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इससे दक्षिण-पूर्व एशिया की अन्य देशों की अंदरूनी राजनीति भी प्रभावित होती है। थाईलैंड इसका उदाहरण है जहां लंबे समय से सेना और लोकतंत्र समर्थकों के बीच टकराव हो रहा है। वहां भी सैन्य शासकों ने तख्तापलट कर सत्ता कब्जा ली थी। ऐसे में म्यांमा में लोकतांत्रिक शासन के अंत को महज उसकी आंतरिक घटना मानना भारी भूल होगा, साथ ही लोकतंत्र के प्रति अन्याय भी।

यही कारण है कि आसियान के उन सदस्य देशों जहां लोकतंत्र खासा मजबूत है, ने म्यांमा के सैन्य शासन के प्रति खुल कर अपनी नाराजगी जताई। क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उनके यहां भी इस तरह तानाशाही की प्रवृति न उभरने लगे। आसियान के सदस्य देश इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन और सिंगापुर पूर्ण लोकतांत्रिक देश हैं जहां सरकारें चुनी जाती हैं। सेना पूर्णरूप से निर्वाचित सरकार के अधीन काम करती है। इसलिए इन्हीं चार देशों ने म्यांमा के सैन्य शासन को लेकर ज्यादा नाराजगी दिखाई और उस पर लोकतंत्र बहाली के लिए दबाव बना रखा है। लेकिन म्यांमा के सैन्य शासक इन देशों की अपील की अनदेखी ही कर रहे हैं। दरअसल आसियान के सदस्य देश और म्यांमा के पड़ोसी थाईलैंड का रवैया म्यांमा को लेकर स्पष्ट नहीं है। थाईलैंड में भी लोकतंत्र पर सेना हावी है। यहां भी सेना द्वारा तख्तापलट का इतिहास रहा है। 2014 में थाईलैंड में सेना ने तख्तापलट दिया था। फिर 2016 में थाईलैंड की सेना ने अपनी सहूलियत के हिसाब से नया संविधान बनाया, जिसमें देश पर सेना की पकड़ को और मजबूत कर दिया गया।

हालांकि आसियान जैसे क्षेत्रीय संगठन के स्थापित सिद्धांत में स्पष्ट किया गया है कि इसके सदस्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। यही कारण है कि आसियान के सदस्य देश इस बात को लेकर अभी तक एक राय नहीं बना पाए हैं कि अगर किसी सदस्य देश की सीमा में घटी किसी राजनीतिक घटना या सत्ता परिवर्तन से क्षेत्रीय शांति प्रभावित होती हो तो उससे कैसे निपटा जाए। कुछ सदस्य देश म्यांमा के प्रति सख्त हैं, तो कुछ का रवैया नरम है। यही कारण है कि म्यांमा में सैन्य तख्तापलट के बाद भी उसे आसियान की सदस्यता से निलंबित नहीं किया गया। आसियान के अन्य मंचों पर म्यांमा के सैन्य शासकों के प्रतिनिधि जा रहे हैं, बैठकों में भाग ले रहे हैं। उनकी उपस्थिति को रोका नहीं गया
है। कुछ बैठकों में म्यांमा सैन्य शासन के निवेश मंत्री और उपयोजना मंत्री ने भाग लिया। लेकिन तख्तापलट के लिए जिम्मेवार म्यांमा के सैन्य तानाशाह मिन आंग लेंग को सदस्य देशों के प्रमुखों की बैठक में आमंत्रित न कर साफ-साफ यह संदेश दिया गया है कि उसे अंतरराष्ट्रीय नियमों और मूल्यों का पालन करना होगा।

तख्तापलट के बाद से म्यांमा में मानवाधिकारों के हनन की घटनाएं लगातार बढ़ती जी रही हैं। राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी को लेकर आसियान गंभीर है। हालांकि सैन्य शासक मिन आंग लेंग तर्क दे रहे हैं कि म्यांमा में लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट कानून के अनुरूप हुआ है। पर दुनिया जान रही है कि म्यांमा के तख्तापलट में चीन का परोक्ष सहयोग रहा है। लेंग भी अच्छी तरह जानते हैं कि पश्चिमी देश उन्हें आसानी से शासन नहीं करने देंगे। अमेरिका और ब्रिटेन ने सैन्य शासक को निशाने पर ले लिया है। संयुक्त राष्ट्र ने भी म्यांमा की सेना से संबंधित व्यापारिक कंपनियों के साथ दुनिया भर के देशों को संबंध खत्म करने की अपील की है।

लंबे समय बाद म्यांमा में लोकतंत्र बहाली और लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की सत्ता वापसी से लोकतंत्र मजबूत होने के संकेत मिलने लगे थे। पर लोकतांत्रिक सरकार सेना के दखल से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई थी। महत्त्वपूर्ण मंत्रालय सेना के पास ही थे। सेना शासन पर पूरा नियंत्रण हासिल करने की कोशिश में थी और अंतत: सेना तख्तापलट से ऐसा करने में कामयाब हो गई। इस घटना से पड़ोसी देशों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। म्यांमा में जब लोकतंत्र था तब भी सेना बेलगाम थी। तख्तापलट के बाद देश के रखाइन प्रांत में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों का दमन हुआ। इस प्रांत के संसाधनों और भूमि पर सेना की कंपनियों और इसके साथ कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों की नजर थी। रोहिंग्या मुसलमानों के दमन का असर यह हुआ कि लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को बांग्लादेश, भारत, नेपाल, थाईलैंड में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। रोहिंग्या शरणार्थियों से सबसे ज्यादा प्रभावित बांग्लादेश है। इस समय वहां करीब नौ लाख रोहिंग्या शरणार्थी हैं। इसका असर बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ने लगा है। म्यांमा के एक और पड़ोसी देश थाईलैंड में एक लाख से ज्यादा रोहिंग्या शरणार्थी हैं। भारत, इंडोनेशिया, नेपाल जैसे देशों में भी रोहिंग्या शरणार्थियों ने शरण ली।

म्यांमा के सैन्य शासन को लेकर भारत ने अभी तक अपनी नीति स्पष्ट नहीं की है। जबकि एक लोकतांत्रिक देश से यह उम्मीद की जा रही थी कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए म्यांमा के सैन्य शासकों पर दबाव डाला जाता। लेकिन इसके उलट इस साल 27 मार्च को सैन्य शासन की ओर से आयोजित सशस्त्र सेना दिवस परेड में भारत के प्रतिनिधि ने भाग लिया। सशस्त्र सेना दिवस पर आयोजित सैन्य परेड में चीन, रूस, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वियतनाम, लाओस और थाईलैंड के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। ऐसे में यह माना जा सकता है कि भारत का यह कदम रणनीतिक हो। लेकिन इस कार्यक्रम में वियतनाम, लाओस और थाईलैंड के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। ये सारे आसियान के सदस्य देश हैं। बांग्लादेश जो रोहिंग्या लोगों के बोझ से परेशान है, उसने भी रणनीति के तहत म्यांमा के सैन्य शासकों के प्रति नरम रुख अपना रखा है। भारत और बांग्लादेश की म्यांमा संबंधी कूटनीति में कहीं न कहीं चीन शामिल है। म्यांमा के सैन्य शासक चीन के नजदीक हैं। इसलिए भारत को आशंका है कि म्यांमा के सैन्य शासन से टकराव उसे चीन के और नजदीक ले जा सकता है। म्यांमा के अंदर वैसे भी चीन कई बड़ी योजनाओं में निवेश कर चुका है। दूसरी तरफ भारत की लंबी सीमा म्यांमा से लगती है। इसलिए भारत कभी नहीं चाहेगा कि म्यांमा के सैन्य शासक भी उसके खिलाफ मोर्चा खोल दें।

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :