अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: जिस दौर में अर्थव्यवस्था के ऊंची उड़ान भरने के दावे किए जा रहे हों, उसी में चमकती तस्वीर के बरक्स अलग-अलग पैमाने पर गरीबी की त्रासद छवियां भी सामने आ रही हों, तो उसे किस तरह देखा जाएगा? महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के शिरडी शहर में जिन परिस्थितियों में एक महिला ने अपने तीन दिन के नवजात को बेच दिया, उससे एक बार फिर यह सवाल पैदा होता है कि आखिर किसी देश में विकास की परिभाषा क्या है!
खबर के मुताबिक एक महिला ने बीते सितंबर में एक बच्चे को जन्म दिया था, लेकिन उसकी आय या आर्थिक स्थिति इस हद तक खराब है कि वह खुद सहित बच्चे के पालन-पोषण में असमर्थ थी। शायद उसे अपने आने वाले दिनों में भी आय और अपना खर्च चला पाने के बारे में हालात का अंदाजा था, इसलिए कोई विकल्प न पाकर कुछ धन की उम्मीद में उसने अपने बच्चे का ही सौदा करने का फैसला कर लिया। अहमदनगर और ठाणे की तीन महिलाओं की मदद से उसने एक व्यक्ति को एक लाख अठहत्तर हजार रुपए में बच्चा बेच दिया।
निश्चित रूप से कानूनी कसौटी पर और किसी भी लिहाज से महिला के इस फैसले का बचाव नहीं किया जा सकता, इसलिए सूचना के आधार पर पुलिस ने बच्चा खरीदने वाले व्यक्ति सहित महिला और अन्य आरोपियों के खिलाफ जरूरी कार्रवाई की है। ऐसे मामलों में कानून की अपनी बाध्यताएं होती हैं और उसकी औपचारिकता को पूरा करना संबंधित महकमे की जिम्मेदारी है। मगर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऐसी समस्याओं से निपटने के क्रम में उसकी जड़ों या मूल वजहों की भी पड़ताल की जाए।
महिला
ने बेशक कानूनी और सामाजिक व्यवस्था के मुताबिक एक गलत विकल्प का चुनाव किया, लेकिन उसके हालात पर गौर करना एक संवेदनशील समाज और व्यवस्था की जिम्मेदारी है। आखिर क्या वजह है कि अपने बच्चे को बेचने वाली महिला के सामने कोई ऐसा विकल्प नहीं मौजूद था, जिसके सहारे वह अपना और अपने बच्चे का भरण-पोषण कर पाती? अपनी ममता का सौदा करना किसी भी मां के लिए कैसी भावनात्मक त्रासदी से गुजरना हो सकता है, इसका अंदाजा भर लगाया जा सकता है।
सवाल है कि गरीबी की वजह से उपजी लाचारी में महिला को अपनी संवेदना से जिस स्तर का समझौता करना पड़ा, उसे वैसी स्थिति से बचाने के लिए हमारे समाज और सत्ता-तंत्र ने क्या उपाय किए हैं, सहयोग का कैसा ढांचा खड़ा किया है? विडंबना यह है कि सतह पर दिखती चकाचौंध आमतौर पर जमीनी हकीकत से काफी दूर होती है, मगर अक्सर उसी को प्रतिनिधि-छवि मान लिया जाता है। दरअसल, कुछ छवियों के आधार पर सामाजिक सहयोग को भले ही एक सकारात्मक चलन के तौर पर पेश किया जाता हो, लेकिन सच यह है कि वक्त के साथ सामाजिक सहयोग और संवेदना के मामले में भी तेजी से छीजन आई है।
आपसी व्यवहार और जुड़ाव के मामले में बनते दायरे के समांतर यह भी कड़वी हकीकत है कि सरकारी स्तर पर घोषित गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों और योजनाओं की पहुंच वास्तविक जरूरतमंदों तक समय पर नहीं हो पाती है। अगर ऐसा आमतौर पर होने लगता है तब इस तरह की योजनाओं के कोई मायने नहीं रह जाते। आज हालत यह है कि भुखमरी और कुपोषण के मामले में हमारे देश की दशा समूची दुनिया में बेहद चिंताजनक हो चुकी है। आखिर यह समूची तस्वीर किन नीतियों और राजनीतिक इच्छाशक्ति का नतीजा है?
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