कौन कहता है कभी किसी चीज को नहीं बदला जा सकता है। लोगो के अंदर नकारात्मक सोच आज इतनी अंदर तक घर कर गयी है की लोग शायद कभी कभार ये भी भूल जाते है की बदलाव तो प्रकृति का नियम है जिसके बगैर कुछ नही। हालाँकि इसमें चीजों के अलावा लोगो की सोच को बदलना कई गुना मुश्किल होता है परन्तु न मुमकिन नहीं होता। ऐसा ही कुछ बहुत पहले एक कोरियन ड्रामा ‘डेसेंडेंट्स ऑफ़ द सन’ देखा था। इस ड्रामा का एक डायलॉग मेरे दिल के बहुत करीब है कि ‘आप पूरी दुनिया नहीं बदल सकते, लेकिन अगर किसी एक बच्चे की दुनिया भी आपकी वजह से बदल सकती है तो बिल्कुल बदलें!’
किंजल देख मुझे यह लाइन अचानक से याद आ गई, जब उन्होंने कहा कि उन्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, बस अगर कोई डोनर हमें पैसे देने के बजाय हमारे किसी बच्चे की स्कूल फीस भर दे, तो यही काफी है। वाकई उपन्यासों, फिल्मों, नाटकों आदि की कहानियाँ वास्तविक जीवन से ही प्रेरित होती हैं।
गुजरात के अहमदाबाद की रहने वाली किंजल शाह पिछले 11 सालों से यहाँ के पिछड़े और गरीब तबके के बच्चों को शिक्षा उपलब्ध करवा रही हैं। बायो-मेडिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल करने वाली किंजल ने कभी भी इस तरह के किसी सोशल वर्क या फिर कोई एनजीओ स्थापित करने के बारे में नहीं सोचा था। वे तो बस ग्रैजुएशन के दूसरे साल में अपने दोस्तों के कहने पर स्लम एरिया में जाकर वहाँ बच्चों को पढ़ाने के अभियान से जुड़ गई थीं।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए किंजल ने कहा, “साल 2008 में मैं सेकंड ईयर में थी और तब टाइम्स ऑफ़ इंडिया का ‘टीच इंडिया’ अभियान शुरू हुआ था। मेरे एक दोस्त जैतून ने इस अभियान से जुड़ने की पहल की। उसी का आइडिया था कि हम वीकेंड पर ज़रूरतमंद बच्चों को पढ़ाएं। उस समय लगभग 6-7 दोस्तों के साथ मिलकर हमने यह काम शुरू किया था ।
स्लम एरिया चुनने के लिए उन्होंने कोई खास सोच-विचार नहीं किया था। ऐसे ही किसी ने गुलबाई टेकरा का नाम लिया और फिर उन्होंने यहाँ के म्यूनिसिपैलटी स्कूल में जाकर बात की। हर शनिवार और रविवार उन्हें दो घंटे तक बच्चों को पढ़ाने की अनुमति मिल गई।
अहमदाबाद के बीच
में बसा यह वही गुलबाई टेकरा है, जिसे लोग ‘हॉलीवुड बस्ती’ के नाम से भी जानते हैं। कभी आप इस इलाके से गुजरेंगे तो आपको कच्चे-पक्के हर मकान के बाहर बड़ी-बड़ी गणपति की, माँ दुर्गा की तो कहीं राम-कृष्ण की मूर्तियाँ दिखेंगी। मूर्तियाँ बनाना ही यहाँ के लोगों का मुख्य रोज़गार है। यह व्यवसाय इस बस्ती में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है, लेकिन यहाँ के बच्चों का भविष्य दांव पर है, क्योंकि उनकी शिक्षा पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है।
किंजल ने बताया ,”जब हमने यहाँ आना शुरू किया तो बच्चों के माता-पिता को उन्हें रेग्युलर पढ़ने के लिए भेजने को राजी करना भी बहुत मुश्किल था। उस समय हम सिर्फ़ स्कूल ही नहीं जाते थे, बल्कि बस्ती में लगातार आते, ताकि कोई भी बच्चा स्कूल मिस न करे। यह मुश्किल था, पर नामुमकिन नहीं।”
ग्रैजुएशन पूरा होने तक किंजल इन बच्चों को पढ़ाने के लिए लगातार आती रहीं। ग्रैजुएशन के बाद उनके कई दोस्त आगे पढ़ने के लिए बाहर चले गए तो कुछ ने अहमदाबाद में रहते हुए भी स्कूल आना बंद कर दिया। लेकिन किंजल जॉब ज्वाइन करने के बाद भी हर शनिवार और रविवार बच्चों को पढ़ाने आती थीं। इन बच्चों को पढ़ाना उनकी आदत में शामिल हो गया था। अगर वे इन बच्चों की एक क्लास भी मिस करतीं तो उन्हें यह बात खलने लगती।
साथ ही, उन्हें 7वीं-8वीं कक्षा के बाद बच्चों का स्कूल ड्रॉप आउट हो जाना भी बहुत खलता था, ख़ासकर लड़कियों की पढ़ाई बंद हो जाती थी। इस बारे में उन्होंने बहुत से माता-पिता से बात की, लेकिन कई जगहों पर सरकारी स्कूल सिर्फ़ 8वीं तक ही थे और आगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने के उनके पास साधन नहीं थे। कई बच्चे प्राइवेट स्कूल में दाखिले के बाद भी पढ़ाई छोड़ देते, क्योंकि उनका स्तर बाकी बच्चों जैसा नहीं होता था।
कोई और होता तो शायद इन सब बातों को किनारे करके अपने करियर पर फोकस करता। लेकिन किंजल ने ऐसा नहीं किया। वे इन बच्चों को उनके हाल पर नहीं छोड़ सकती थीं और इसलिए उन्होंने तय किया कि वे बच्चों को सिर्फ़ वीकेंड पर नहीं, बल्कि हर रोज़ पढ़ाएंगी। लेकिन जॉब के साथ यह काम करना किसी चुनौती से कम नहीं था और किंजल ने यह चुनौती स्वीकार की।
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