अब कहाँ वो बचपन वाली होली

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अब कहाँ वो बचपन वाली होली

VIJAY SHUKLA 24-03-2022 18:31:33

ना जाने किसकी नजर लग गयी हैं हमारी संस्कृतियों की पहचान त्यौहारों की उस रंगत को या यूं कहे तो आज लोग थे कश्मीर फाइल्स देखकर कश्मीर के हालात का जायजा लेते फिरते हैं खासकर वो भी जो शायद कभी अपनी  चौखट से खेत की मेड़ तक भी ना गए हो। आज की बेरंग  होली से  उमंग और उत्साह गायब है। शायद इसे ‘नए जमाने’ की नजर लग गई। ‘नए जमाने’ मतलब, नई सोच और नई जीवन शैली। जब जीवन शैली बदल जाती है, तो पर्व-त्योहारों के मानने के तौर-तरीके भी बदल जाते हैं। हालांकि सिर्फ होली की बात नहीं है, बल्कि हर पर्व-त्योहार के साथ भी कमोबेश ऐसा ही है।


 


 

खलता हैं यूं होली से अपनों का दूर होना और अपनों में होली की वो मेल मिलाप की जगह अकेले की सेल्फी में बदलते देखना .  अब होली में न तो भाईचारे और आपसी मिल्लत का राग रहा और न ही लोक-संस्कृति का रंग। एक समय होली का त्योहार आते ही ढोलक की थाप और मंजीरों पर चारों ओर फाग गीत गूंजने लगते थे और वासंती बयार के साथ फाग का राग घुल कर एक अलग ही माहौल बना देता था । ऐसा महसूस होता था जैसे पूरी सृष्टि नाच रही हो। लेकिन आधुनिकता ने इसे अपना ग्रास बना लिया। शहर की बात तो दूर, अब ग्रामीण परिवेश में भी फाग का राग के साथ ढोलक की थाप सुनाई नहीं पड़ती।


 

एक समय था, जब किसी के दालान पर फगुआ की महफिल सजती थी। उस महफिल में सभी तबके के लोग शरीक होते। वहां शरबत-पानी और रंग-गुलाल और दूधभंगा का पुख्ता इंतजाम होता था। कोई ‘होरी’ गाने वाले सधी आवाज में टेर लगाता, फिर उसकी टेर पकड़ कर कोई और सहारा देता। फिर उसे तीव्रता के साथ विभिन्न स्वरों में देर तक दुहराया जाता। फाग के समवेत स्वर में लोगों की अलग-अलग भंगिमाएं भी होतीं।


 

हम बच्चो की भी मौज आती गुझिया और कज्जी के साथ होली खेलने की । कोई पालथी मारकर दोनों घुटनों पर ढोलक की तरह ताल देता, तो किसी कि आंखें विचित्र हरकतें करतीं। कोई अपने लंबे बालों को लय के अनुसार झटके देते, तो कोई अपने मुंह की आकृति ऐसा बना लेता, जैसे किसी ने करेला का जूस पिला दिया हो! जब सब राग में
मस्त होते हैं , तब आधे से अधिक लोग घुटनों पर खड़े हो जाते। फिजां में रस घोलती झालों की समवेत ध्वनि। ढोलक पर ताबड़तोड़ थाप से लगता कि ढोलक अब फटा कि तब। भाईचारे और आपसी सद्भाव का अतुलित-अद्भुत नजारा।


 

लेकिन अब होली को शहरीपन की नजर लग गई। अब ‘होली खेले रघुबीरा अवध में, होले खेले रघुबीरा…’, और ‘आज बिरज में होरी रे रसिया…’ जैसे कर्णप्रिय होली गीत सुनाई नहीं देते। अब इन पारंपरिक गीतों की जगह भौंडे और अश्लील गानों ने अपना स्थान बना लिया है। होली के महीने भर पहले से ही तिपहिया और बसों में होली के नाम पर ऊंची आवाज में अश्लील गाने बजने शुरू हो जाते हैं। इससे महिलाओं के लिए कहीं आना-जाना भी मुश्किल हो जाता है।होली के दिन भी अलग-अलग टोलों में लोग ताश के पत्ते फेंटते दिखते हैं। पूरे गांव की होली पहले टोलों, फिर परिवार और अब पति-पत्नी और बच्चे तक सिमट कर रह गई है। शरारती युवाओं की टोली अब जल्दी चिढ़ने वाले किसी बुजुर्ग को खोज कर उन्हें गहरे रंगों से सराबोर नहीं करती। उनके गुस्से को हंसी-ठहाकों में तब्दील नहीं करते। शहर ही नहीं, गांव का युवा वर्ग भी अब वाट्सऐप और यूट्यूब पर मशगूल है। बुजुर्ग अब बेकार की वस्तु बन गए। अब बात-बात पर लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। अब न पहले जैसी अल्हड़ मिजाजी रही और न पहले की तरह सहनशीलता। पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में भी पहले जैसी आत्मीयता नहीं रही।


 

यह सब अचानक नहीं हुआ। आधुनिकता की दौड़ में हम इतने मगन हो गए कि पता ही नहीं चला कि हम अपनी संस्कृति से कटते जा रहे हैं। पर्व-त्योहारों में हर्ष के साथ शरीक होना अब कुलीनता को धूमिल करने लगा है।  गाँव में होली जलाने की लकड़ी से लेकर उपला तक इकठ्ठा करने की युवा टोली अब न जाने कहा गायब हैं।  गाँवों में ज़िंदा हैं पर अब वैसी बात वहा भी नहीं। वरना बचपन में लकड़ी या उपला काम मिलने पर लोग अपने अपने घरो से उठाकर या यूं कहे साथियो से उड़ाकर ले जाते थे और होली सच में सबकी होती थी और उड़ते अबीर गुलाल के बीच वो कीचड का भी एक अलग आनंद था। काश वो बचपन की होली वापस आ जाती। 

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