अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: सरकारें किसानों और किसानी की दशा सुधारने का दम तो खूब भरती हैं, मगर हकीकत यह है कि कृषि क्षेत्र की हालत दिन पर दिन दयनीय होती गई है। कुछ साल पहले तक किसानों की आत्महत्या को लेकर सरकारें विपक्ष के निशाने पर हुआ करती थीं। उसके मद्देनजर अनेक योजनाएं तैयार की गर्इं, जिनमें फसल बीमा, आसान शर्तों पर कृषि कर्ज आदि मुहैया कराने की व्यवस्था की गई। मगर उन योजनाओं का भी कोई लाभ नजर नहीं आया। हालांकि कई साल से किसानों की खुदकुशी से जुड़े आंकड़े उजागर नहीं हो रहे थे, इसलिए कई लोगों को भ्रम था कि अब किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रुक गया है। मगर हकीकत इसके उलट है।
अभी लोकसभा में एक प्रश्न का लिखित जवाब देते हुए गृह राज्यमंत्री ने बताया कि पिछले तीन सालों में सत्रह हजार किसानों ने खुदकुशी की। यह आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा दर्ज किया गया है। अपराध रिकार्ड ब्यूरो देश में दुर्घटना में होने वाली मौतों और खुदकुशी के मामलों का ब्योरा दर्ज करता है। यानी उसने वही ब्योरे दर्ज किए होंगे, जो उसे देश के विभिन्न थानों से प्राप्त हुए होंगे। इसलिए इस आंकड़े को लेकर कुछ लोगों को संदेह भी हो सकता है।
किसानों की हालत अब किसी से छिपी नहीं है। खेती-किसानी चूंकि घाटे का सौदा होती गई है, इसलिए बहुत सारे किसान अब आजीविका के दूसरे साधनों की तलाश में गांवों से पलायन कर जाते हैं। पूरे देश में खेतिहर मजदूरों की संख्या लगातार चिंताजनक ढंग से कम हो रही है। हालांकि केंद्र सरकार का दावा है कि वह छोटे और सीमांत किसानों की दशा सुधारने, उनकी आमदनी दोगुनी करने का प्रयास कर
रही है, मगर स्थिति यह है कि न तो किसानों को अपनी फसल की वाजिब कीमत मिल पा रही है और न फसल बीमा जैसी योजनाओं का संतोषजनक लाभ। यही वजह है कि किसान लंबे समय से न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कानून बनाने की मांग करते रहे हैं।
किसान आंदोलन को वापस कराने के लिए सरकार ने वादा किया था कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर जल्दी ही समिति गठित करेगी और कानून लाएगी, मगर उस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं बढ़ाया जा सका है, जिसके चलते फिर से किसानों में नाराजगी उभरती दिखने लगी है। छिपी बात नहीं है कि खाद, बीज, सिंचाई, खेतों की जुताई, फसल कटाई, माल ढुलाई आदि पर खर्च लगातार बढ़ता गया है, मगर उस अनुपात में फसलों की कीमतें तय नहीं हो पातीं। जो कीमतें तय होती भी हैं, उन पर सरकारें पूरी फसल की खरीद सुनिश्चित नहीं कर पातीं। ऐसे में किसान बिचौलिया व्यापारियों के चंगुल में फंस कर रह जाते हैं।
किसानों की खुदकुशी का मामला सीधे-सीधे उनकी दुर्दशा से जुड़ा है। बहुत सारे किसान कर्ज लेकर नगदी फसलों की बुआई करते हैं, मगर मौसम की मार की वजह से जब फसल चौपट हो जाती है, तो न तो फसल बीमा योजना से उसकी भरपाई हो पाती है और न उनके पास वह कर्ज उतारने का कोई अन्य साधन होता है। इस तरह कर्ज का बोझ बढ़ने से वे एक दिन जिंदगी से ही हार बैठते हैं। देश में अगर एक भी किसान को खेती में घाटे की वजह से खुदकुशी का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है, तो यह सरकारों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। मगर सरकारों के माथे पर शिकन नजर नहीं आती।
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