पहले ही खत्‍म हो जाता आंदोलन….

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पहले ही खत्‍म हो जाता आंदोलन….

Anjali Yadav 10-12-2021 16:01:57

अंजलि यादव,

लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,

 

नई दिल्ली: आखिरकार जद्दोजहद के बाद साल भर से अधिक चले कृषि कानून विरोधी आंदोलन को खत्म करने की घोषणा कर दी गई। किसान आंदोलन का आखिरकार समापन तक पहुंचना राहत और स्वागत की बात है। अच्छा होता यह काम और पहले किया जाता और विशेष रूप से कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद। इस आंदोलन का आवश्यकता से अधिक लंबा खिंचना किसान संगठनों और सरकार के बीच के अविश्वास को ही व्यक्त करता है। आशा की जाती है कि अविश्वास की यह खाई पटेगी और सरकार, कृषि विशेषज्ञ एवं देश भर के किसानों के प्रतिनिधि आपस में विचार-विमर्श करके ऐसे निर्णयों तक पहुंचेंगे, जो खेती के साथ किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभकारी होंगे।

वहीं 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ ही साफ संकेत मिल गया था कि सरकार अब किसानों की मांग के आगे झुकने को तैयार है। हालांकि, तब किसान वापसी के लिए तैयार नहीं हुए थे। शायद सरकार पर विश्वास कम था,तो किसानों ने संसद से कानून के रद्द होने का इंतजार किया। 29 नवंबर को लोकसभा और राज्यसभा में तीन कृषि कानूनों का निरस्तीकरण हुआ। इसके बाद भी किसान दिल्ली की सीमाओं से नहीं हटे, क्योंकि वे बाकी मांगों को भी लगे हाथ मनवाना चाहते थे। किसानों में एक भय भी था, जिसे संयुक्त किसान मोर्चा के नेता राकेश सिंह टिकैत ने जाहिर भी कर दिया था कि जो भी जल्दी घर जाएगा, वह जेल जाएगा। यह किसानों की एक बड़ी चिंता थी कि आंदोलन के दौरान दर्ज हुए मुकदमे सरकार पहले वापस ले। जबकि सरकार चाहती थी कि किसान पहले आंदोलन खत्म करें, तब मुकदमे वापस होंगे, लेकिन किसानों ने मुकदमा वापस लेने के आश्वासन मिले बिना आंदोलन खत्म करने से इनकार कर दिया। जिस ढंग से किसानों ने इस समग्र आंदोलन को चलाया है, उसकी आलोचना भले संभव है, पर आंदोलन को सफल मानने की अनेक वजहें दर्ज हो चुकी हैं।

भले ही सरकार किसान संगठनों की जिद के चलते कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए बाध्य हुई हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि
कृषि सुधारों की आवश्यकता नहीं रह गई है। सच तो यह है कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद यह आवश्यकता और अधिक बढ़ गई है। इसका आभास आंदोलन की राह पर चले किसान संगठनों को भी हो तो अच्छा है। इन किसान संगठनों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी समेत जिन विषयों पर विचार करने के लिए तैयार हो गई है, उन पर वैसे ही निर्णय लिए जाएंगे, जैसे वे चाह रहे हैं। उन्हें यह भी स्मरण रखना होगा कि उनके आंदोलन में देश भर के किसानों की भागीदारी नहीं थी और तमाम किसान ऐसे थे, जो कृषि कानूनों को अपने लिए उपयोगी मान रहे थे।

यह सही है कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए, लेकिन इसमें संदेह है कि ऐसा एमएसपी की उस व्यवस्था से हो सकेगा, जिसे बनाने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं। एमएसपी पर जैसे गारंटी कानून की पैरवी की जा रही है, वैसा कोई कानून किसान हितों को क्षति पहुंचाने और साथ ही महंगाई बढ़ाने वाला भी साबित हो सकता है। इसी तरह यदि किसान संगठन यह चाहेंगे कि उन्हें पराली जलाने की छूट मिलती रहे तो यह न केवल कृषि के लिए नुकसानदायक साबित होगा, बल्कि पर्यावरण के लिए भी।

 

आंदोलन खत्म हो रहा है, लेकिन किसानों की समस्याओं के समाधान में अभी वक्त लगेगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर समिति बने, किसानों की मर्जी से ही मूल्य तय हो, देश के सभी किसानों को अपनी फसलों का यथोचित मूल्य मिले, लोग यही चाहते हैं। कृषि पर सरकार इतना ध्यान दे कि कृषि को लोग जीविका का लाभदायक साधन मानें। किसानों के हित में कृषि उत्पादों की कीमतों में इजाफे के लिए सभी को तैयार रहना चाहिए। हर राज्य सरकार को अपने-अपने स्तर पर देखना चाहिए कि उनके यहां किसानों का शोषण रुके, लागत की भरपाई के साथ ही न्यायपूर्ण आर्थिक लाभ भी जेब में आए। 40 किसान संगठनों की ऐतिहासिक एकता इस आंदोलन की सफलता पर ही खत्म नहीं होनी चाहिए। किसानों का शोषण करने वाले व्यापारियों और नेताओं पर लगाम लगाए रखने की जिम्मेदारी भी किसान संगठनों को उठानी पड़ेगी। 

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