पिछले आम चुनावो में केजरीवाल की पार्टी का पंजाब में सफल न होने के पीछे मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा का न होना और केजरीवाल का ही गद्दी पर बैठने का अफवाह तंत्र पक्का होना बताया गया था अलग अलग जानकारों द्वारा। इस बार सरकार बनी और मुख्यमंत्री का चेहरा भगवंत मान को बनाया गया वो अलग बात हैं कि केजरीवाल जी की धर्मपत्नी के नाम का ऑडियो चड्ढा साहब के राज होने की आशंका को चुनाव के बीच चर्चा में था।
अब जब सरकार बन गयी हैं तो उसके अफसरों की मीटिंग केजरीवाल का लेना एक सवालिया निशान बन गया हैं और किसी मुद्दों के बिना खाली बैठी विपक्षी पार्टियों को हल्ला मचाने का मौका भी जो खुद दिया तो केजरीवाल जी ने ही हैं। चुनी हुई सरकारों से लोगों की स्वाभाविक अपेक्षा होती है कि वे किसी के दबाव या प्रभाव में काम करने के बजाय अपने विवेक से फैसले करें। इसीलिए पंजाब में नई बनी सरकार के अधिकारियों की पार्टी आलाकमान अरविंद केजरीवाल के साथ दिल्ली में हुई बैठक को लेकर विपक्ष हमलावर है। बताया जा रहा है कि मंगलवार को केजरीवाल ने पंजाब के वित्त सचिव और स्वास्थ्य सचिव के साथ बैठक की।
हाल में केजरीवाल ने पंजाब के मुख्यमंत्री और सम्बंधित मंत्रियो की गैर हाजिरी में बिजली विभाग के अधिकारियों और पीएसपीसीएल के महाप्रबंधक के साथ बैठक की थी। सूत्रों के हवाले से बताया गया कि इस बैठक में चुनाव के दौरान किए गए मुफ्त बिजली वितरण के वादे को पूरा करने की योजना पर चर्चा हुई।मान राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से औपचारिक भेंट करने गए थे। इसलिए केजरीवाल की पंजाब सरकार के अधिकारियों के साथ हुई बैठक को लेकर अधिक शोरगुल है। पूछा जा रहा है कि बिना मुख्यमंत्री की उपस्थिति के केजरीवाल को अधिकारियों की बैठक लेने का अधिकार कैसे मिल गया। हालांकि विवाद उठने पर मान ने इस बैठक को औपचारिक बताया। पर अभी तक आम आदमी पार्टी या पारदर्शिता का परचम लहराने वाले केजरीवाल की तरफ से इसका कोई खंडन नहीं आया है। इससे जाहिर है कि वह बैठक तय योजना और मुद्दों के साथ हुई थी।
विपक्ष का है तौबा जायज या नाजायज अपने अपने चश्मे से देखि गयी तस्वीर से बनता बिगड़ता हैं चलो मान भी ले कि अरविंद केजरीवाल पार्टी के मुखिया हैं और उनका अधिकार बनता है कि वे अपनी पार्टी की सरकारों के कामकाज के बारे में
जानकारी हासिल करें। मगर इसका यह अर्थ कतई नहीं कि वे सीधे पंजाब सरकार के अधिकारियों को तलब कर उसकी योजनाएं तय करने लगें। अधिकारियों की बैठक बुलाना, उनसे योजनाओं के बारे में विचार-विमर्श करना या कोई आदेश देना मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र में आता है, पार्टी मुखिया के नहीं।
और वो भी तब जब अरविंद केजरीवाल खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और वे इस संवैधानिक तकाजे को अच्छी तरह जानते हैं। हैरानी है कि फिर भी उन्होंने ऐसा किया। जब उनके फैसलों में दिल्ली के उपराज्यपाल हस्तक्षेप किया करते थे या कभी उनके अधिकारियों से सीधे कुछ पूछ लेते थे, तब तो वे धरना-प्रदर्शन तक पर उतर आते थे और मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र को रेखांकित करते हुए सवाल खड़े करते थे। अब पंजाब के मामले में हस्तक्षेप करते वक्त कैसे वे बातें भूल गए। हालांकि इस बात की आशंका उसी दिन जताई जाने लगी थी, जब चुनावों के दौरान भगवंत मान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया गया था। तभी लोग कहने लगे थे कि भगवंत मान रबड़ की मुहर का काम करेंगे, असल भूमिका तो केजरीवाल की होगी। पंजाब की सरकार केजरीवाल ही चलाएंगे। वह कयास इतनी जल्दी सच साबित होगा, किसी ने सोचा न होगा।
केजरीवाल शुरू से पार्टी को अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं। पार्टी के संविधान में एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत होने के बावजूद वे मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष दोनों की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। पंजाब में बेशक उनकी पार्टी को बड़ी कामयाबी मिली है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वहां सत्ता की बागडोर चुनी हुई सरकार के बजाय पार्टी अध्यक्ष के हाथों में आ गई। संवैधानिक तकाजा है कि सरकारों के मुखिया पार्टी हितों से ऊपर उठ कर काम करेंगे। इस तरह सरकार और पार्टी में दूरी की अपेक्षा की जाती है। यह तकाजा केजरीवाल तो भुला बैठे हैं, पर क्या भगवंत मान कभी इस पर अमल कर सकेंगे! अब अगर ऐसा नहीं हैं तो मोहन भागवत या जेपी नड्डा या फिर सोनिया गाँधी अपनी चुनी हुई सरकारो के अधिकारियों को तालाब करने लगेंगे और शायद यह मौलिक अधिकार बन जाएगा और धीरे धीरे लोकाचार। फिर कैसी की अच्छी राजनीती की शुरुवात . यह तो केजरीवाल ने अपने आप गलत कदम पेश कर दिया या फिर भगवंत मान की गैरहाजिरी में अपने अनुभव से पंजाब की सरकार की कमान का सीधा सन्देश दे दिया जो लोगो में अब तक महज अफवाह थी।
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