अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: लखीमपुर खीरी हिंसा मामले में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा की भूमिका को लेकर विशेष जांच दल ने जो बातें अदालत के सम्मुख रखी हैं, वे बेहद गंभीर हैं। जांच अधिकारी ने अपनी तफ्तीश में पाया है कि यह महज लापरवाही से गाड़ी चलाने व गैर-इरादतन हत्या का मामला नहीं है, बल्कि मुख्य आरोपी ने जान-बूझकर किसानों पर गाड़ी चढ़ाई थी, जिसमें चार किसान और एक पत्रकार की मौत हो गई। इसके बाद उग्र भीड़ की पिटाई से तीन भाजपा कार्यकर्ताओं की भी जान चली गई थी। बहरहाल, एसआईटी ने अब अदालत से अनुरोध किया है कि आशीष के खिलाफ हत्या व सुनियोजित साजिश की धाराएं जोड़ने की इजाजत दी जाए। विगत 3 अक्तूबर को जब यह कांड हुआ था, और इसके फौरन बाद जो वीडियो फुटेज सोशल मीडिया में वायरल हुए थे, उनको देखकर देश-दुनिया में लोग सिहर उठे थे। आंदोलित किसानों, विपक्षी नेताओं के दबाव के बाद राज्य सरकार ने एसआईटी जांच का आदेश दिया था।
इस मुकदमे की नियति तो अदालत में तय होगी, लेकिन यह विडंबना ही है कि इतने बडे़ कांड में भी पुलिस कई दिनों तक मुख्य आरोपी की तलाश करती रही और सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बाद ही उसने आत्मसमर्पण किया। यह इकलौता मामला नहीं है, जब किसी रसूखदार आरोपी के आगे तंत्र की बेबसी उजागर हुई हो। अभी चंद दिनों पहले ही मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर परमबीर सिंह भी कानून से आंख-मिचौली खेल रहे थे और सुप्रीम कोर्ट से संरक्षण मिलने के बाद ही पूछताछ के लिए पुलिस के समक्ष उपस्थित हुए। दरअसल, ऐसी ही वारदातों
के कारण पुलिस और जांच एजेंसियों की छवि जनता की निगाहों में धूमिल हुई है। कई बार तो निरीह आरोपी इस आशंका में छिपता फिरता है कि न्यायिक शिथिलता उसे न जाने कितने लंबे अरसे तक इंसाफ से दूर रखेगी!
लोकतंत्र की सफलता और सरकारों का इकबाल इस बात से ही तय होता है और होगा कि तंत्र कितनी निष्पक्षता से काम कर रहा है। इसकी नजीर के लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अश्वेत अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की 25 मई, 2020 को एक पुलिस अधिकारी ने निर्मम हत्या की थी। हत्यारे अफसर को एक साल के भीतर अदालत ने पद का दुरुपयोग करने और क्रूरता बरतने का दोषी पाते हुए 22 साल से अधिक की सजा सुना दी। लेकिन ऐसी पेशेवर दक्षता के लिए हमारे तंत्र को कायांतरण की जरूरत होगी। दुर्योग से कई आयोगों की सिफारिशों, सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों के बावजूद पुलिस सुधार की कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। प्रशासनिक सुधार का हाल तो लोकपाल कानून का हश्र ही स्पष्ट कर देता है। नतीजा यह है कि कई बेकसूर सालोंसाल सलाखों के पीछे पड़े रह जाते हैं और साधन-संपन्न आरोपी कानूनी दांवपेच का फायदा उठाकर सामान्य जिंदगी जीते रहते हैं। इन सबसे न सिर्फ हमारा सामाजिक जीवन प्रभावित होता है, दुनिया में भी हमारी कुछ अच्छी छवि नहीं बनती। बेहतर भारत के निर्माण के लिए हमें ऐसे पेशेवर तंत्र की जरूरत है, जो सिर्फ संविधान के प्रति वफादार हो। दिक्कत यह है कि राजनीतिक प्रभाव से मुक्त ईमानदार तंत्र को गढ़ने की जिम्मेदारी राजनेताओं पर ही है। जब तक इस तंत्र का रास्ता नहीं निकलेगा, उद्दंड रईसजादों की बेलगाम रफ्तार धीमी नहीं पड़ेगी।
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