अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: यह अच्छी बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति कूटनीति के जरिये यूक्रेन संकट का हल निकालने के पक्ष में हैं, लेकिन यदि वह वास्तव में ऐसा चाहते हैं तो फिर उन्हें रूस पर शर्ते थोपने के साथ ही उसकी चिंताओं का भी समाधान करना होगा। यदि रूस यूक्रेन को लेकर आक्रामक है तो इसके पीछे के कारणों को अमेरिका को उसी तरह समझना होगा, जिस तरह कई यूरोपीय देश समझते दिख रहे और बीच-बचाव की कोशिश भी कर रहे हैं।
यूक्रेन संकट के मूल में अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो का उन देशों में भी विस्तार है, जो एक समय रूस के नेतृत्व वाले सोवियत संघ का हिस्सा थे। जब सोवियत संघ अस्तित्व में था और अमेरिका एवं उसके बीच शीतयुद्ध चरम पर था, तब नाटो के जवाब में वारसा संधि भी थी। कायदे से वारसा संधि खत्म हो जाने के बाद नाटो को भी अपना विस्तार रोक देना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रूस की यह चिंता जायज दिखती है कि अमेरिका नाटो के विस्तार के माध्यम से उसकी घेराबंदी कर रहा है। यूरोपीय देशों को भी इस पर ध्यान देना होगा कि जब वे अपने ऊर्जा स्नोतों के लिए रूस पर निर्भर हैं तो फिर
नाटो के विस्तार में योगदान देकर मास्को की चिंता बढ़ाने में भागीदार क्यों बन रहे हैं?
रूस इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि अमेरिका न केवल यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाने को तैयार है, बल्कि उसे सैन्य सामग्री भी प्रदान कर रहा है। यह विचित्र है कि जब अमेरिका अपने हितों के साथ-साथ विश्व व्यवस्था के लिए भी चीन के आक्रामक उभार को लेकर चिंतित है, तब वह रूस को घेरने में लगा हुआ है। ऐसा करके वह न केवल यूक्रेन संकट को उलझा रहा है, बल्कि रूस को चीन के पाले में धकेलने का भी काम कर रहा है। आखिर यह कैसी कूटनीति है कि जब अमेरिका को चीन पर लगाम लगाने पर ध्यान देना चाहिए, तब वह रूस के रूप में उसे एक सहयोगी उपलब्ध करा रहा है?
नि:संदेह जहां अमेरिका को अपनी कूटनीति पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है, वहीं रूस के लिए भी यह आवश्यक है कि वह यूक्रेन के रूसी भाषी इलाकों में अलगाववादियों को उकसाने से बाज आए। वह यूक्रेन के रूसी भाषी क्रीमिया को पहले ही बलपूर्वक अपने में मिला चुका है। यदि रूस भाषा के आधार पर यूक्रेन में अलगाववाद को हवा देगा तो इसका बुरा असर दुनिया के अन्य हिस्सों में भी पड़ेगा।
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