लोकतंत्र एक कठिन मार्ग या बना हथियार.....

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लोकतंत्र एक कठिन मार्ग या बना हथियार.....

Anjali Yadav 11-12-2021 16:44:01

अंजलि यादव,

लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,

 

नई दिल्ली: लोकतंत्र एक कठिन मार्ग है, लेकिन उस पर चलने की पैरोकारी की हर कोशिश का स्वागत होना चाहिए। दुनिया में आधे से ज्यादा देशों में आज अगर लोकतंत्र स्थापित है, तो यह प्रमाण है कि संसार के ज्यादातर लोग लोकतंत्र को पसंद करते हैं। यदि हम लोकतंत्र की विकास यात्रा पर नजर डाले तो यह अचानक बनने वाली व्यवस्था न होकर, इसके आधुनिक स्वरूप तक आते आते हजारो साल लग गये. मगर आज यह सबसे लोकप्रिय शासन के रूप में सभी देशों में अपनाई जा रही हैं।

वहीं आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना करने वाले अग्रणी राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के बुलावे पर विश्वस्तरीय ऑनलाइन लोकतंत्र सम्मेलन का आयोजन हो रहा है। इसमें पाकिस्तान को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन उसने आखिरी वक्त में भाग लेने से इनकार कर दिया है। दरअसल, इस सम्मेलन में चीन को आमंत्रित नहीं किया गया है और चीनी सत्ता प्रतिष्ठान विगत दिनों से अपनी नाराजगी लगातार जाहिर करने में लगा हुआ है। चीन में भले ही लोकतंत्र नहीं है, पर वह अपनी व्यवस्था को समाजवादी लोकतंत्र से कम नहीं मानता। एक समय तक अमेरिका चीनी व्यवस्था की ओर से आंखें मूंदे हुए था, पर जब चीनी व्यवस्था अमेरिका पर हावी होने लगी, तब उसकी नींद टूटी। लोकतंत्र पर सम्मेलन शायद अलोकतांत्रिक चीन को घेरने की अमेरिकी कोशिश ही है। हाल ही में अमेरिका चीन में आयोजित विंटर ओलंपिक में भाग लेने से इनकार कर चुका है, इससे भी चीन का रोष स्वाभाविक है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहल पर दो दिवसीय वर्चुअल समिट फॉर डेमोक्रेसी ऐसे समय हुई, जब पूरी दुनिया में लोकतंत्र की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। बाइडन ने समिट की शुरुआत करते हुए बताया कि यह लगातार 15वां वर्ष है, जब वैश्विक स्तर पर नागरिक स्वतंत्रता पर पाबंदियां बढ़ी हैं। यही नहीं, पिछले एक दशक के दौरान लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले आधे से ज्यादा देशों में लोकतंत्र बाधित हुआ है। वैसे, अन्य देशों की क्या बात की जाए खुद अमेरिका में भी लोकतंत्र गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है।राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे घोषित हुए एक साल से ज्यादा हो चुका है, लेकिन ट्रंप समर्थकों की बड़ी संख्या ऐसी है, जिसने अब तक चुनाव परिणामों को स्वीकार नहीं किया है। अपने आसपास की बात करें तो पड़ोसी देश म्यांमार में निर्वाचित सरकार को इसी साल फरवरी में सेना ने ताकत के जोर से उखाड़ फेंका। जिन देशों में लोकतंत्र कायम है, वहां भी लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार विभिन्न उपायों
से कम किए जाने की शिकायतें मिल रही हैं।

निस्संदेह, बाइडन का आमंत्रण ठुकराकर पाकिस्तान ने चीन को खुश करने की कोशिश की है और अपनी एक पुरानी पड़ती नाराजगी का भी मुजाहरा किया है। बाइडन को सत्ता संभाले दस महीने से भी ज्यादा बीत गए, लेकिन उन्होंने इमरान खान को एक फोन तक नहीं किया है। इसके पीछे अमेरिका की जो रणनीति है, वह धीरे-धीरे साफ होने लगी है। पाकिस्तान जैसे-जैसे चीन के पहलू में जाएगा, अमेरिका की तल्खी वैसे-वैसे बढ़ती जाएगी। पाकिस्तान अभी चीन के साथ खड़े होने में अपना हित देख रहा है और चीन उसे अपना ‘आयरन ब्रदर’ या ‘भाई’ करार दे रहा है। हर देश को लाभ-हानि सोचने का हक है, पर पाकिस्तान को ठीक से सोच लेना चाहिए। उसे यदि चीन से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक मदद मिल रही है, तो क्या भविष्य में उसको अमेरिका की जरूरत नहीं पड़ेगी? क्या पाकिस्तान को चीन के रूप में नया अमेरिका मिल चुका है?

बहरहाल, हमारे लिए यह बड़ा सवाल है कि भारत की जगह कहां है। भारत राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है। यहां तमाम विविधताओं के बावजूद लोकतंत्र सलामत है और दुनिया के बहुत से देशों के लिए ईष्र्या की वजह है। हमें अपने लोकतंत्र को और मजबूत व समावेशी बनाना चाहिए। बाइडन ने इस सम्मेलन में लोकतंत्रों में आ रही गिरावट पर चिंता का इजहार किया है, तो दुनिया के 100 से ज्यादा लोकतांत्रिक देशों को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए। यह अच्छी बात है कि दुनिया में इक्का-दुक्का लोकतांत्रिक देश ही ऐसे हैं, जिनका मकसद साम्राज्यवादी है या जो ताकत के जोर पर अपने भूगोल का विस्तार चाहते हैं। जो लोकतांत्रिक होगा, वही संवाद से आगे की राह तय करेगा और जिसका संवाद पर भरोसा नहीं होगा, वह धूर्तताओं और बंदूकों के सहारे आगे बढ़ेगा। राष्ट्रपति बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका को भी अपनी वैश्विक नीतियों की समीक्षा करनी चाहिए। क्या अमेरिका दुनिया में लोकतंत्रों को मजबूत करने की दिशा में वाकई ईमानदार होने जा रहा है?  साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र किसी भी समाज या देश पर बाहर से नहीं थोपा जा सकता, इसे अपनाने और बचाने की लड़ाई हर समाज को खुद लड़नी होती है, इसके बावजूद लोकतांत्रिक मूल्यों की चिंता को राष्ट्रीय भूगोल की सीमा में बांटकर नहीं रखा जा सकता। इन्हें वैश्विक मूल्य के रूप में संजोकर ही दुनिया बेहतरी की ओर कदम बढ़ा सकती है।

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