अंजलि यादव,
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया,
नई दिल्ली: भारत में लोकतंत्र का ढांचागत स्वरूप और उसका निर्वाह आज कई ऐसी स्फीतियों का शिकार है, जिनकी वजह से भविष्य की चिंताएं बढ़ जाती हैं। खासतौर पर चुनावी मौसम में दलीय आस्था को लेकर जिस तरह का खिलवाड़ होता है और नेताओं के बीच दलबदल की होड़ मचती है, वह कहीं से स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत नहीं है। आलम यह है कि मौजूदा विमर्श भी इस तर्क के साथ ज्यादा खड़ा दिखता है कि जिस दल की तरफ दलबदल का झुकाव ज्यादा है, सत्ता का गणित उसके पक्ष में ज्यादा है।
पिछले साल हुए पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से लेकर पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में इस आधार पर सियासी आकलन के कई प्रायोजित खेल खेले गए। गनीमत है कि देश में मतदाताओं का विवेक आज भी बड़े और अतिवादी मुद्दों पर स्वस्थ निर्णय लेकर अपने और देश की लोकतांत्रिक आस्था के साथ खड़ा नजर आता है। लेकिन महज इस गनीमत के साथ हम देश में मजबूत और स्वस्थ लोकतंत्र के बारे में भरोसे के साथ कुछ नहीं कह सकते।
फिलहाल जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें गोवा भी है। वहां बीते पांच साल में चौबीस विधायकों ने एक पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी का दामन थामा है। यह संख्या चालीस सदस्यों वाली विधानसभा में विधायकों की कुल संख्या का साठ फीसद है। एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि इस मामले में गोवा ने एक ऐसा कीर्तिमान बना डाला जिसकी भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं मिलती। क्या इसे जनादेश के घोर अनादर के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? ऐसा दलबदल मतदाताओं के साथ सबसे बड़ा छल होता है।
हाल में उत्तर प्रदेश में
कितने ही नेताओं ने अपने दल बदले, सरकार के मंत्रियों तक ऐन चुनाव के पहले पद-पार्टी छोड़ दूसरे दलों का दामन थाम लेने में कोई संकोच नहीं दिखाया। मौजूदा स्थिति में राज्यों से लेकर केंद्र की राजनीति में दलबदल एक ऐसे जरूरी दुर्गुण के तौर पर शामिल हो गया है, जिसके बारे में राजनीतिक दलों के बीच तकरीबन साझी सहमति है।
हालांकि इस बारे में चुनाव आयोग ने भी कई बार ध्यान दिलाया है, पर लगता नहीं है कि देश के राजनीतिक दल इस बारे में किसी बदलाव या हस्तक्षेप के लिए ईमानदारी से राजी हैं। दलबदल की बढ़ती प्रवृत्ति ने देश में जनमत का चरित्र बदल डाला है। माननीयों के दलबदल के कारण दलों की हार-जीत का गणित सरकार बदलने के बाद भी चलता रहता है। मध्य प्रदेश इसका हालिया बड़ा उदाहरण है। इससे पहले कर्नाटक, गोवा और मणिपुर में भी ऐसा हो चुका है।
1985 में बने दलबदल विरोधी कानून का दायरा सीमित है। चुनावों के दौरान होने वाला दलबदल इससे बाहर है। यह अलग बात है कि यह कानून भी चुनाव बाद होने वाले दलबदल पर न तो रोक लगाने में सफल रहा है, न ही इस बारे में निर्णय प्रक्रिया बहुत संतोषप्रद रही है। दरअसल, यह पूरा संदर्भ देश में दलीय व्यवस्था के भरोसे चल रहे लोकतंत्र की नैतिकता और उस पर खरे उतरने का है। इस बारे में जहां राजनीतिक दलों को सत्ता के आकर्षण से अलग रह कर नैतिक शुचिता का परिचय देना होगा, वहीं मतदाताओं को भी अपने फैसले से दलबदलुओं को चुनावों में उतरने के प्रति हतोत्साहित करना होगा। अन्यथा बहुत जल्द हम एक ऐसे दौर में पहुंच होंगे जहां स्वस्थ जनमत के बूते सरकार बनाने की प्रक्रिया महज एक लोकतांत्रिक पाखंड बन कर रह जाएगी।
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