कोई नहीं चाहता अबॉर्शन टेबल पर लेटना

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कोई नहीं चाहता अबॉर्शन टेबल पर लेटना

Deepak Chauhan 30-05-2019 15:34:27

कुछ कहानियों की याद भर ढेर सारी उदासी लेकर आती है. ऐसी ही एक कहानी थी उस रोमानियन फिल्म, ‘फोर मंथ्स, थ्री वीक्स एंड टू डेज’ की. 1987 का समय है. दो लड़कियां यूनिवर्सिटी स्टूडेंट हैं. उनमें से एक प्रेग्नेंट है. फिल्म उस अनचाहे गर्भ को गिराने की उन दोनों की जद्दोजहद की कहानी है. धूसर रंगों में फिल्माई और लगातार किसी अंधेरे में खिसकती हुई फिल्म में लंबे-लंबे दृश्य हैं, जिनमें कोई संवाद नहीं. सिर्फ उनका अकेला होना है, सबकी नजरों से बचकर खुद को बचा लेने की कोशिश करना है, उस डॉक्‍टर का ब्लैकमेल करना है और वो सन्नाटा, जो फिल्म के पर्दे पर, उनके भीतर और उसे देखते हुए आपके भीतर भी उतरता जाता है. इललीगल अबॉर्शन करने से पहले डॉक्‍टर उस प्रेग्‍नेंट लड़की की सहेली के साथ सेक्‍स करता है. लड़कियों को बात माननी पड़ती है क्‍योंकि उनके पास और कोई रास्‍ता नहीं.

अगर आप एक औरत हैं और एक संवदेनशील मर्द भी, तो उस फिल्म को देखते हुए आपका दिल बैठ जाएगा. आप सोचेंगी, शुक्र है कि आप बनिस्बतन एक ठीक देश में, ठीक समय में पैदा हुईं.

1987 के रोमानिया में गर्भपात गैरकानूनी था. रोमानियन एकादमिक एद्रियाना ग्रैदिया की मानें तो गैरकानूनी होने के कारण असुरक्षित तरीकों से गर्भपात कराने की कोशिश में तकरीबन 10,000 लड़कियों ने अपनी जान गंवाई. फिल्म के निर्देशक क्रिस्तियान मुनचियु ने फिल्म रिलीज के दौरान प्रेस के साथ शेयर किए एक आंकड़े में कहा था कि लगभग पांच लाख लड़कियों ने इस तरह चोरी-छिपे अबॉर्शन कराने के लिए अपनी जान खतरे में डाली थी. 1989 की क्रांति के बाद रोमानिया में अबॉर्शन लीगल हो गया और इसे महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों में शुमार किया गया.

लेकिन हम अचानक ये 30 साल पुरानी कहानी क्यों लेकर बैठ गए? क्योंकि लग रहा है कि दुनिया के सबसे ताकतवर और अमीर मुल्क अमेरिका में ये पुराना इतिहास एक बार फिर दोहराए जाने की जमीन तैयार हो रही है. अभी मंगलवार की रात रिपब्लिकंस बहुल अमेरिकन स्टेट अलाबामा की सीनेट में हर तरह के अबॉर्शन के खिलाफ वोटिंग हुई. अधिकांश वोट समर्थन में पड़े. इस कानून के मुताबिक अब वहां किसी भी स्थिति में गर्भपात गैरकानूनी होगा और ऐसा करने वाले डॉक्‍टर को 99 साल की कैद की सजा होगी. यहां तक कि रेप या इन्सेस्ट रिश्तों से होने वाली प्रेग्नेंसी में भी अबॉर्शन पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया. ट्रंप सरकार के सत्ता में आने के बाद से ये चौथा अमेरिकी स्टेट है, जहां अबॉर्शन पर प्रतिबंध लग गया है। इतनी जल्दी? अभी 46 साल पहले 1973 में तो अमेरिकन सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को अबॉर्शन का संवैधानिक अधिकार दिया था. अभी पचास साल भी नहीं गुजरे कि वक्त की घड़ी घूमकर फिर उसी अंधेरे युग में पहुंच गई। 


अबॉर्शन यानी अनचाहे गर्भ से मुक्ति का अधिकार.

एक ऐसा अधिकार, जिसका संबंध सिर्फ और सिर्फ औरत से है, सिर्फ औरत के शरीर से है, उसके स्वास्थ्य, उसके जीवन से है. इसमें मर्द की कोई हिस्सेदारी नहीं. और जिस चीज में उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं, उस चीज को तय करने का अधिकार पिछले ढाई हजार सालों से सिर्फ और सिर्फ मर्दों के पास है.

मानव सभ्यता के इतिहास में यह हमेशा ही प्रतिबंधित रहा हो, ऐसा नहीं है. ईसाई धर्म के उदय से पहले 400 ईसा पूर्व में जन्मे दार्शनिकों प्लेटो और अरस्तू दोनों ने कहा था कि जब तक भ्रूण पूर्ण मनुष्य रूप धारण कर जन्म न ले ले, तब तक गर्भपात अपराध नहीं है. अरस्तू सिर्फ उस गर्भपात को गलत मानते हैं, जिसमें स्त्री के पति की सहमति नहीं है. लेकिन जैसे-जैसे धर्म ने एक संस्था का रूप लिया और इंसानों की जिंदगी को नियंत्रित करना शुरू किया तो धीरे-धीरे अबॉर्शन तकरीबन पूरी दुनिया में प्रतिबंधित हो गया.

उसके बाद की तमाम कहानियां औरतों की देह और जिंदगी पर मर्दों के नियंत्रण की लंबी तकलीफदेह दास्तान है. उसके बाद ही ये हुआ कि पूरी दुनिया में जाने कितनी औरतों ने अनचाहे बच्चे पैदा किए, चुपके से असुरक्षित तरीकों से गर्भ गिराने के चक्कर में अपनी जान गंवाई, सेहत को नुकसान पहुंचाया. आज दुनिया के तकरीबन 97 फीसदी देशों में अबॉर्शन लीगल है, लेकिन पूरी दुनिया में ये हुए अभी ठीक से 50 साल भी नहीं गुजरे हैं। 

फ्रांस का ‘मेनिफेस्टो ऑफ 343 स्लट्स’ तो एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. 5 अप्रैल, 1971 को एक फ्रेंच मैगजीन में यह घोषणापत्र छपा, जिसमें 343 औरतों ने अपने जीवन में कभी-न-कभी गर्भपात कराने की बात स्वीकार की. ये छापना एक तरह से स्टेट के खिलाफ बगावत करना था क्योंकि फ्रेंच कानून के मुताबिक गर्भपात की सजा जेल थी. वो फ्रेंच फेमिनिस्ट मूवमेंट का वक्त था. सिमोन द बोवुआर जैसी औरतों के नाम उस मेनिफेस्टो में शामिल थे. हालांकि जब ये छपा था तो इसका नाम ‘मेनिफेस्टो ऑफ 343 स्लट्स’ नहीं था. वो तो फ्रेंच वीकली ‘चार्ली हेब्दो’ ने अपनी हेडलाइन लगाई, “हू गॉट द 343 स्लट्स/बिचेज फ्रॉम द अबॉर्शन मेनिफेस्टो, प्रेग्नेंट?” वहीं से ये नाम पड़ा. चार्ली हेब्दो ने अबॉर्शन कराने वाली औरतों को स्लट, बिच कहा. औरतों को ये गाली पसंद आई. उन्होंने नाम ही रख दिया- ‘मेनिफेस्टो ऑफ 343 स्लट्स’.

1992 में डोरोथी फैडीमैन ने एक डॉक्‍यूमेंट्री फिल्म बनाई थी, ‘व्हैन अबॉर्शन वॉज इललीगलः अनटोल्ड स्टोरीज.’ फिल्म को उस साल का ऑस्‍कर मिला था. इस फिल्‍म में जो औरतें अपनी कहानी सुना रही हैं, उनके बाल पक चुके हैं, चेहरे पर झुर्रियां हैं. बहुत साल हुए उस तकलीफ से गुजरे, लेकिन इतने वक्त बाद भी उस अनुभव, तकलीफ, लड़ाई और अकेलेपन को बोलते हुए उनकी आवाज कांपने लगती है, आंखें भर आती हैं. वो सबकुछ से गुजरीं, लेकिन उन्हें आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि वो सजा आखिर किस अपराध की थी. जब ये सब हो रहा था, तो उनमें से अधिकांश कम उम्र थीं. जो लड़का प्रेग्नेंट होने में साझेदार था, वो अबॉर्शन में साझेदार नहीं हुआ. उस रोमानियन फिल्म की तरह अधिकांश लड़कियों ने ये लड़ाई अकेले ही लड़ी या कुछ में उनकी मां साथ थीं. लेकिन मां भी सिर्फ इज्जत बचाने में साथ थीं, वो पीड़ा में साथ नहीं थीं.

ये इतनी पुरानी कहानियां हैं कि किसी गुजरे जमाने की बात लग सकती हैं. लेकिन वो लड़की सविता हलप्पनावर, उसका नाम तो अब भी हमारी स्मृति में है. आयरलैंड के एक मूर्खतापूर्ण कानून ने उस हंसती-खेलती लड़की की जान ले ली. भारतीय मूल की सविता अपने पति के साथ आयरलैंड में रहती थीं. उनकी प्रेग्नेंसी काफी मुश्किल थी. जान को खतरा था. डॉक्‍टरों ने अबॉर्शन से इनकार कर दिया क्योंकि आयरलैंड का कानून इसकी इजाजत नहीं देता. पति ने कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया, लेकिन इजाजत नहीं मिली. कोर्ट का कहना था कि भ्रूण की सांस चल रही है यानी वो एक जीवित मनुष्य है और ईसाई धर्म मनुष्य की हत्या की इजाजत नहीं देता। 

28 अक्तूबर, 2012 को सविता की मौत हो गई. यह मामला नेशनल डिबेट का मुद्दा बन गया था. उसकी मौत के बाद कहीं जाकर आयरलैंड का कानून बदला और
कुछ क्रिटिकल स्थितियों में, जहां मां की जान को खतरा हो, गर्भपात की कानूनी इजाजत दी गई. लेकिन आयरलैंड में आज भी कोई 25 साल की लड़की सिर्फ इसलिए अबॉर्शन नहीं करवा सकती क्योंकि वो अभी बच्चा नहीं चाहती, या उसे कॅरियर पर फोकस करना है या उस बच्चे का बाप एक धोखेबाज, गैरजिम्मेदार इंसान है. बाप जैसा भी हो, लड़की को बच्चा तो पैदा करना ही पड़ेगा. या फिर गैरकानूनी ढंग से अबॉर्शन करवाना पड़ेगा. ये सहज उपलब्ध, सीधी सी, आसान सी बात तो बिलकुल नहीं है.

ये सब पढ़, सुन, समझकर हमें कैसा महसूस होता है? यही न कि एक औरत कब सेक्स करेगी, कब मां बनेगी, नहीं बनेगी, कैसे बनेगी, कितने बच्चों की बनेगी, ये सब तय करने का कोई अधिकार औरत को नहीं है. मर्द न सिर्फ उसे पत्‍नी बनाकर उसकी देह पर अपना मालिकाना हक जताते रहे हैं, बल्कि अबॉर्शन के कानून बनाकर भी उसकी देह और उससे जुड़े फैसलों को नियंत्रित करते रहे हैं.

मीडियम की एक स्‍टोरी की हेडलाइन है- “कानून बनाने वाले मर्दों को औरत के शरीर के बारे में रत्‍ती भर ज्ञान नहीं.” क्‍या ये बात सही नहीं है? ये जैसे कानून बनाते और फरमान सुनाते हैं, उससे तो यही लगता है कि इन्‍हें पता क्‍या है. ये तो नौ महीने अपने पेट में बच्चा नहीं रखते, इनके शरीर से तो हर महीने पांच दिन खून नहीं रिसता, न इनका शरीर फाड़कर बच्चा दुनिया में आता है और न ही बच्चे के जन्म के लिए इनका पेट चीरा जाता है. ये लोग तो ऐसे अहम्मन्य किस्म के रहे हैं कि 19वीं सदी की शुरुआत में जब पोलिश मेडिकल स्टूडेंट मिशालिना विस्लोका वारसा यूनिवर्सिटी के पास “फैमिली प्लानिंग एंड विमेन हेल्थ” पर अपना रिसर्च प्रोजेक्ट लेकर गईं तो हेड ने कहा, “आप हार्ट या लीवर पर रिसर्च क्यों नहीं करतीं. उसके लिए फंडिंग आसानी से मिल जाएगी.”

इतिहास गवाह है कि मेडिकल साइंस को भी औरतों के शरीर पर रिसर्च करने में भी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. मिशालिना विस्लोका को न सिर्फ मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसरों, बल्कि डॉक्‍टर बनने के बाद औरत के शरीर और सेक्‍सुएलिटी पर अपनी किताब छपवाने के लिए पोलैंड की सरकार से भी लड़ना पड़ा था. इजाडोरा डंकन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “मेरे पहले बच्चे के जन्म के समय किस बेहूदगी और क्रूरता से उस डॉक्‍टर ने मेरी डिलिवरी करवाई थी. वो तो बिना बेहोश किए ही लगा मेरा पेट चीरने. मेरे सामने कोई फेमिनिज्म की बकवास मत करना. पहले विज्ञान पर काम करो और औरतों को बच्चा पैदा करने की इस तकलीफ से निजात दिलाओ.”

डंकन का कहना था, फेमिनिज्‍म का मतलब है औरत की जिंदगी को बेहतर बनाने वाले असली काम. लेकिन विज्ञान ये काम करता कैसे? मेडिकल कॉलेज की सबसे उंची कुर्सी पर बैठे मर्द कह रहे थे कि आप हार्ट और लीवर पर रिसर्च क्यों नहीं करतीं.

अब ये 2019 है. अब ऐसा नहीं होता. मेडिकल साइंस काफी आगे निकल चुका है. अब तो विज्ञान ब्रेस्ट, यूटरेस, फेलोपियन ट्यूब और वेजाइना की सेहत को भी उतनी ही गंभीरता से लेता है, जितनी हार्ट और लीवर की. मैं तो सिर्फ ये बता रही थी कि ये जो आज हुआ है, ये भी कुछ आसानी से नहीं हो गया. औरतों को इसके लिए भी लड़ना पड़ा है. एक लंबा सफर तय किया है हमने, जो यहां तक पहुंचे हैं.

और इस इतनी लंबी यात्रा के बाद दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क में जो रहा है, वो कोई मामूली बात नहीं है.

अलाबामा में मंगलवार की रात को जो हुआ, क्या वो अनायास था? जब उन्होंने कहा कि वो अबॉर्शन को इसलिए प्रतिबंधित करना चाहते हैं क्योंकि वो ‘जीवन के पक्ष’ में हैं तो क्या ये सचमुच इतनी सीधी सी बात थी? सीनेट में 25 मर्द थे और सिर्फ तीन औरतें. तीनों औरतों ने विरोध में वोट डाला. वो इसके विरोध में बोलीं, “इट इज नॉट अबाउट लाइफ, इट इज अबाउट कंट्रोल.”

25 मर्दों के समर्थन के सामने तीन औरतों के विरोध की आवाज दब गई. कानून पास हो गया.

उस रात सीनेट में मर्दों ने जैसी भाषा का प्रयोग किया, वो जो-जो बोले, वो एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. वॉशिंगटन पोस्ट की एक जर्नलिस्ट ने विस्तार से लिखा है कि उस रात सीनेट में क्या-क्या हुआ.

रिपब्लिकंस की तरफ से क्लाइड चैंबलिस इस बिल की व्याख्या कर रहे थे. वो बोले, “ये कानून महिलाओं को तब तक प्रभावित नहीं करेगा, जब तक कि उन्हें ‘पता न हो’ कि वो प्रेग्नेंट हैं.”

महिला सदस्य कोलमैन मेडिसन ने पूछा, “अब पता न हो का क्या मतलब हुआ?”

मि. क्लाइड ने दोहराया, “मतलब अगर आपको पता नहीं है कि आप प्रेग्नेंट है तो फिर आप प्रेग्नेंट नहीं हैं.”

कोलमैन ने गहरी सांस ली. अपनी ठोढ़ी हथेली पर टिकाई और उबासी से बोलीं, “ये तो टिपिकल मर्दाना जवाब हुआ. आपको ये पता ही नहीं है क्योंकि आप कभी प्रेग्नेंट नहीं हुए. और यही आपका प्रॉब्‍लम हैः आप कभी प्रेग्नेंट नहीं हो सकते. आपको पता ही नहीं है कि प्रेग्नेंट होना क्या होता है.”

वो तीन औरतें उस दिन सीनेट में बोलीं और खूब बोलीं. उन्होंने कहा कि किसी चीज को प्रतिबंधित करने का मतलब ये नहीं कि वो बंद हो जाएगी. वो इललीगल तरीकों से होगी, वो छिपकर होगी, वो असुरक्षित होगी. अबॉर्शन बंद नहीं होंगे, औरतों का शरीर और सेहत ज्यादा खतरे में रहेगा.

वो सब बोलीं, लेकिन बिल पास हो गया.

अलाबामा की जनसंख्या में 51 फीसदी औरतें हैं और सिर्फ 49 फीसदी मर्द. जेंडर अनुपात अच्छा है, लेकिन महत्वपूर्ण, आधिकारिक, फैसलाकुन पदों पर औरतें कुल मिलाकर 12 फीसदी भी नहीं. इसलिए अपनी जिंदगी से जुड़े फैसलों पर भी उनकी कोई आवाज नहीं है. इसीलिए उस दिन 25 मर्दों ने मिलकर तय कर दिया कि अब 51 फीसदी औरतें अबॉर्शन नहीं करवा सकतीं.

लगता है जैसे कोई प्रहसन चल रहा है. मजाक हो रहा है. जिस मामूली से इंसानी अधिकार के लिए औरतें सौ साल लड़ीं, बलात्कार से, इंसेस्ट रेप से, जबर्दस्ती किए गए सेक्स से, लापरवाह और गैरजिम्मेदार प्रेमी से, धोखेबाज मर्द से ठहरे गर्भ को गिराने के लिए अपनी जान खतर में डाली, कितनी तो मर भी गईं, हमारा वो बहुत बुनियादी मानवीय अधिकार, हमारा वो संवैधानिक अधिकार 25 मर्दों ने आपस में तय करके रातोंरात छीन लिया.

हमारे देश में तो फिलहाल ये पूरी तरह लीगल है, अगर आप भ्रूण का लिंग परीक्षण नहीं करवा रहे हैं तो. लेकिन 1971 के पहले इंडियन पीनल कोड की धारा 1860 के तहत ये अपराध था. यूरोप में इस वक्त वेटिकन सिटी, आयरलैंड, माल्टा और सैन मैरिनो को छोड़ हर जगह लीगल है. दुनिया के तकरीबन 97 फीसदी देशों में लीगल है.

लेकिन इनमें से एक भी देश में अगर वक्‍त की सूई उल्‍टी दिशा में घूमे तो ये पूरी दुनिया की औरतों के लिए चिंता की बात है. क्‍योंकि जैसे वो उस दिन आंखें गोल करके सीनेट में कह रहे थे कि ‘दिस इज फॉर लाइफ,’ वो झूठ था.

बात जीवन को बचाने की नहीं है. बात औरतों को कंट्रोल करने की है.

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