अतीत में भविष्य की खोज.....

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अतीत में भविष्य की खोज.....

Jyotsana Yadav 19-09-2019 14:45:14

कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी और राज्यसभा में नई पारी के लिए मनमोहन सिंह की वापसी स्वाभाविक ही कांग्रेस के राजनीतिक संगठन-क्षमता और सीमाओं, दोनों को दर्शाती है। 2014 से पहले के 10 वर्षों तक इन्हीं दो नेताओं का नेतृत्व कांग्रेस को प्राप्त था। नेहरू परिवार से पार्टी प्रमुख और प्रधानमंत्री के रूप में एक सिद्ध अर्थशास्त्री की जोड़ी सरकार में रही है। यह स्पष्ट संकेत है कि पार्टी ऐसे समय में भी इतिहास में जी रही है, जब प्रतिद्वंद्वी दल सशक्त होकर अपने दूसरे कार्यकाल में तेजी से भविष्य निर्माण में जुटा है। 

आखिर क्या गलत हो गया? यह प्रश्न उठाना आसान है, लेकिन इसका उत्तर कठिन है। 1960 के दशक में कांग्रेस अपने शक्तिशाली दौर में थी और 1980 के दशक में भी पार्टी ने फिर एक बार उल्लेखनीय ऊंचाइयों को प्राप्त किया, लेकिन अब पार्टी ढलान पर है। संकीर्ण या छोटे नजरिए से देखें, तो कांग्रेस को प्रभाव और सत्ता के लिए पर्याप्त समय मिला। 1967 तक वह करीब 45 प्रतिशत तक वोट पाने में कामयाब हो जाती थी। उसी वर्ष वाम से दक्षिण तक सभी पार्टियों के मेल से बने संयुक्त विपक्ष ने कई राज्यों में कांग्रेस के शासन का अंत कर दिया। इसके ठीक एक दशक बाद केंद्र में भी संयुक्त विपक्ष ने यही दोहरा दिया। दो व्यवस्थाओं के बाद 1989 में तीसरी व्यवस्था के लिए रास्ता खुला। इस तीसरी व्यवस्था में न तो कांग्रेस का प्रभुत्व था और न कांग्रेस का विरोध। इस दौर में 25 वर्षों तक कोई ऐसी पार्टी नहीं रही, जो लोकसभा में 272 सीटों के साथ साधारण बहुमत भी जुटा पाती। अल्पमत वाली सरकारों और गठबंधनों का दौर आ गया। साल 1989 में जो युग वीपी सिंह के साथ शुरू हुआ, राव, वाजपेयी और मनमोहन इसी युग के उत्पाद थे। 

यादें ही कांग्रेस की दिक्कत हैं और इसमें भी सत्ता के पहले दौर की मीठी यादें। वर्ष 2019 में भाजपा का ज्यादातर प्रचार अभियान नेहरू और उनके परिवार के खिलाफ चलाया गया, इसके बावजूद कांग्रेस अपने इन नेताओं के बड़े कार्य गिनाने में नाकाम रही। पंडित नेहरू का साहसिक रुख, भारत की मजबूत बुनियाद रखने में उनका योगदान, राष्ट्र को परमाणु शक्ति बनाने और मिसाइल कार्यक्रम शुरू करवाने में उनकी भूमिका, देश का तकनीकी और वैज्ञानिक आधार मजबूत करने में उनके योगदान को याद नहीं किया गया। 

कांग्रेस में विरोधियों से लड़ने की क्षमता है। 2018 के जाड़ों में जब पश्चिमी और मध्य भारत में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब कांगे्रस ने ताकत का प्रदर्शन किया था। इसी वर्ष लोकसभा चुनाव में भी पंजाब में कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह के राष्ट्रवाद को किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं पड़ी। केरल में भी पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया। हालांकि जीत की ऐसी छोटी ट्रॉफियों के बावजूद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशियों ने जमानत जब्त कराने के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और पार्टी बमुश्किल 50 के आंकड़े को पार कर सकी। आज पार्टी के सामने केवल नेतृत्व की समस्या नहीं है, राजनीतिक चिंतन और ऊर्जा की भी समस्या है। आज कांग्रेस के पास न तो पहले
जैसी धारा बची है और न वह भाजपा को रोक पा रही है। एक दशक सत्ता में रहने और लगभग छह साल विपक्ष में रह लेने के बाज भी पार्टी अपने आधार के प्रति सचेत नहीं हुई है या मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला करने के नए विचार और नए चेहरों को आगे लाने के प्रति पर्याप्त गंभीर नहीं हुई है। \

अनुच्छेद 370 के खिलाफ बोलने वाले युवा नेताओं का तमाशा इस बात का पुख्ता सुबूत है कि पार्टी के पास ऐसे प्रमुख नेता हैं, जिनकी कोई गंभीर मान्यता या विश्वास नहीं है। पहले जनसंघ और 1980 के बाद भाजपा लगातार अनुच्छेद 370 के खिलाफ बात करती रही है, जबकि कांग्रेस ने इस अनुच्छेद को गढ़ा था। पंडित नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक सभी ने इस मुद्दे को कम आंका। पार्टी ने एक संघीय व्यवस्था में ही सार देखा था और एकता बनाए रखने के लिए स्थानीय विशेषताओं पर जोर दिया था। अब उसका सामना विपरीत विचारधारा से हुआ है। कांग्रेस चोट करने के लिए तैयार है, लेकिन तगड़ी चोट करने से डरती है।

आज के व्यापक आर्थिक परिदृश्य को देखें, तो हालात ठीक नहीं हैं। निवेश का ऐसा सूखा आर्थिक सुधार के वर्ष 1991 के बाद से कभी नहीं देखा गया था। यही समय है, जब विपक्ष को एकजुट होकर तमाम असंतुष्ट ताकतों को एकत्र करना चाहिए और एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना चाहिए। कांग्रेस सरकार सुधारक के रूप में काम करे। ऐसा करते हुए वह अपनी जमीन वापस पा सकती है। हालांकि इस दिशा में बढ़ने का अभी तक कोई संकेत नहीं मिलता। कांग्रेस अध्यक्ष ने राज्यों में इकाइयों को उन प्रमुख नेताओं की सूची तैयार करने के लिए कहा है, जो पिछले छह वर्षों में धार गंवा चुके हैं। यह लंबी सूची बताता है कि कांग्रेस के महत्वाकांक्षी नेता-कार्यकर्ता आगे या पार्टी से परे देखने लगे हैं। 

कांग्रेस अन्य देशों के पुराने स्थापित दलों के इतिहास पर कड़ाई से नजर फेर सकती है। 1945 के आते-आते तक ब्रिटेन में लिबरल पार्टी अपनी ही अतीत की छाया बन गई थी। पिछले दो दशक में इजरायल की लेबर पार्टी और फ्रांस व जर्मनी के सोशल डेमोक्रेट्स कमोबेश अपनी-अपनी लकीर पीटने में लगे हैं। इनमें एक बात समान है कि इनके नेता अतीत में रहते हैं और मौजूदा दौर में अपने लिए नई भूमिका तलाशने में अक्षम हो रहे हैं।

अभी भी कांग्रेस के पास देश का दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है। वर्ष 1980 में और 2004 में फिर अपना रास्ता तैयार करने का उसका अपना इतिहास रहा है। अगर कांग्रेस को वापसी करनी है, तो एक बात पार्टी के कर्ताधर्ताओं को अच्छी तरह समझ लेने की जरूरत है। अव्वल तो पार्टी को स्वयं पार्टी से बचाना होगा। ज्यादा नए चेहरे लाने से भी बात नहीं बनेगी, सफाई के लिए एक बड़े झाड़ू की जरूरत है। ऐसे ताजा हाथों और विचारों की जरूरत है कि खत्म होते विपक्ष को फिर बहाल किया जा सके। शायद इसमें समय लगेगा। भारत आशा के संकेत का इंतजार करेगा। जीवंत विपक्ष के बिना कोई भी लोकतंत्र पूरा नहीं होता।


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