क्या है पानीपत युद्ध की असली कहानी?

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क्या है पानीपत युद्ध की असली कहानी?

Abhayraj Singh Tanwar 05-11-2019 13:27:05

बॉलीवुड में आए दिन फ़िल्में रिलीज़ होती रहती हैं। कुछ फ़िल्में लोगो के दिल पर राज करती हैं और कुछ लोगो की आखो में से उतर जाती हैं लेकिन वहीँ बात करे कुछ ऐसी फिल्मों की जो इतिहास रच जाती हैं और उनमे से भी कुछ फ़िल्में भारतीय इतिहास पर भी बनती है जो दर्शकों को बेहद पसंद आती है , एक ऐसी ही फिल्म दिसंबर में रिलीज़ होने वाली है उसका नाम  हैं पानीपत जिसमे अर्जुन कपूर और संजय दत्त मुख्या भूमिका निभा रहे हैं। फिल्म की कहानी तीसरे पानीपथ युद्ध पर आधारित हैं जो मराठा और अहमद शाह अब्दाली के बीच हुआ था और अब उस युद्ध पर फिल्म बनचुकी है।  आज फिल्म का ट्रेलर रिलीज़ हो चूका है जोकि दर्शकों को बेहद पसंद भी आ रहा है। चलिए अब आपको बताते हैं उस युद्ध की असल घाटी घटना के बारे में जो हिंदुस्तान के महान इतिहास की एक छोटी सी कड़ी हैं तो आइये जानते हैं पानीपत  के उस युद्ध के बारे में। 

पानीपत का तृतीय युद्ध अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुआ। पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठा साम्राज्य (सदाशिवा राव भाउ)और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली, जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है के बीच 14 जनवरी 1761 को वर्तमान हरियाणा मे स्थित पानीपत के मैदान मे हुआ। इस युद्ध मे दोआब के अफगान रोहिला और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया।

मुग़ल साम्राज्य का अंत (1748 - 1857) में शुरु हो गया था, जब मुगलों के ज्यादातर भू भागों पर मराठाओं का आधिपत्य हो गया था। 1739 में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया। 1757 ईस्वी में रघुनाथ राव ने दिल्ली पर आक्रमण कर दुर्रानी को वापस अफ़गानिस्तान लौटने के लिए विवश कर दिया तत-पश्चात उन्होंने अटक और पेशावर पर भी अपने थाने लगा दिए। जिससे अब अहमद शाह दुर्रानी को मराठो का संकट पैदा हो गया और अहमद शाह दुर्रानी को ही नहीं अपितु संपूर्ण उत्तर भारत की शक्तियों को मराठों से संकट पैदा हो गया जिसमें अवध के नवाब सुजाउद्दौला और रोहिल्ला सरदार नजीब उददोला भी सम्मिलित थे। मराठों ने राजपूताना मे जाना शुरू कर दिया जिससे राजस्थान के सभी राजपूत राजा जैसे जयपुर के राजा माधो सिंह जी इनसे रूष्ट हो गए और इन सब ने मिलकर ठाना कि मराठों को सबक सिखाया जाए उनकी दृष्टि में मराठों को उस समय एसा व्यक्ति था जो सबक सिखा सकता था और वह अहमद शाह दुर्रानी जो कि दुर्रानी साम्राज्य का संस्थापक था और 1747 में राज्य का सुल्तान बना था सब ने अहमदशाह को भारत में आने का न्योता दिया यह समाचार पहुंंचा तो 1757 पेशावर में दत्ता जी सिंधिया जिनको पेशवा बालाजी बाजीराव ने वहां पर नियुक्त किया था उनको परास्त कर भारत में घुसा था। उस वक्त सदाशिव राव भाऊ की पानीपत के युद्ध के नायक थे वह उदगीर में थे जहां पर उन्होंने 1759 निजाम की सेनाओं को हराया हुआ था। सेना को हराने के बाद उनके ऐश्वर्य में काफी वृद्धि हुई और वह मराठा साम्राज्य की सबसे ताकतवर सेनापति में गिने जाने लगे ।इसलिए बालाजी बाजी राव ने अहमदशाह से लड़ने के लिए भी उनको ही चुना जबकि उन्हें उत्तर में लड़ने का कोई अनुभव नहीं था। उस वक्त भारत में सबसे ज्यादा अनुभव प्राप्त एक रघुनाथ राव और महादजी सिंधिया थे। परंतु इन दोनों पर विश्वास ना करके शायद बालाजी बाजीराव ने सबसे बड़ी भूल की या फिर समय मराठों के साथ नहीं था। सदाशिवराव भाऊ अपनी समस्त सेना को उदगीर से सीधे दिल्ली की ओर रवाना हो गए जहां वे लोग 1760 ईस्वी में दिल्ली पहुंचे। उस वक्त अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पार करके अनूप शहर यानी दोआब में पहुच चुका था और वहां पर उसने अवध के नवाब सुजाउदौला और रोहिल्ला सरदार नजीबूदौला के साथ एक युद्ध और मराठों के खिलाफ रसद भी मिलने का पूरा काम भारतीयों ने ही किया यानी अवध के नवाब ने उसको रसद पहुंचाने का काम किया। मराठे दिल्ली में पहुंचे और उन्होंने कुंजपुरा पर हमला कर दिया जो कि एक जहां पर एक अफगान सेना की कम से कम 15000 थी में उसको तबाह कर दिया और कुंजपुरा में अफगान को पूरी तरह तबाह करके उनसे सभी सामान और खाने-पीने की आपूर्ति मराठों को हो गई मराठों ने लाल किले की चांदी की चादर को भी पिघला कर उससे भी धन अर्जित कर लिया और उस वक्त मराठों के पास उत्तर भारत में रह सकता एक मात्र साधन दिल्ली था परंतु बाद में अब्दाली को रोकने के लिए यमुना नदी पहले उन्होंने एक सेना तैयार की थी परंतु अहमदशाह ने नदी पार कर ली अक्टूबर के महीने में और वह दिल्ली से आगे आकर पानीपत में पहुंच गया जहां उसने दिल्ली और पुणे के बीच मराठों का संपर्क काट दिया ।मराठों ने भी अब्दाली का संंपर्क काबुल से काट दिया। इस तरीके से अब आमने सामने की लड़ाई हो गई। जिस भी सेना की सप्लाई लाइन चलती रहेगी वह युद्ध जीत जाएगी करीब डेढ़ महीने की मोर्चा बंदी के बाद 14 जनवरी सन् 1761 को बुधवार के दिन सुबह 8:00 बजे यह दोनों सेनाएं आमने-सामने युद्ध के लिए आ गई कि मराठों को रसद की आमद हो नहीं रही थी और उनकी सेना में भुखमरी फैलती जा रही थी उस वक्त तक हो सकती थी परंतु अहमदशाह को अवध और रूहेलखंड से हो रही थी युद्ध का फैसला किया इस युद्ध में मराठों की अच्छी साबित हुई ऐसा हुआ नहीं विश्वासराव को करीब 1:00 से 2:30 के बीच एक गोली शरीर पर लगी और वह गोली इतिहास को परिवर्तित करने वाली साबित हुई और सदाशिवराव भाऊ अपने हाथी से उतर कर विश्वास राव को देखने के लिए मैदान में पहुंचे जहां पर उन्होंने उसको मृत पाया बाकी मराठा सरदारों ने देखा कि सदाशिवराव भाऊ अपने हाथी पर नहीं है तो पूरी सेना में हड़कंप मच गया जिसे सेना का कमान ना होने के कारण पूरी सेना में अफरा तफरी मच गई और इसी कारण कई सैनिक मारे गए इसलिए कुछ छोड़ कर भाग गए परंतु सदाशिव राव भाऊ अंतिम दिन तक उस युद्ध में लड़ते रहे इस युद्ध में अंतर शाम तक आते-आते पूरी मराठा सेना खत्म हो गई और कई सैनिक भाग गए ।अब्दाली ने इस मौके को एक सबसे अच्छा मौका समझा और 15000 सैनिक जो कि आरक्षित थे उनको युद्ध के लिए भेज दिया और उन 15000 सैनिकों ने बचे-खुचे मराठा सैनिक जो सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में थे उनको खत्म कर दिया ।मल्राहार राव होलकर महादजी सिंधिया और नाना फडणवीस इस से भाग निकले उनके अलावा और कई महान सरदार जैसे विश्वासराव पेशवा सदाशिवराव भाऊ जानकोजी सिंधिया यह सभी इस युद्ध में मारे गए और इब्राहिम खान गार्दी जो कि मराठा तोपखाने की कमान संभाले हुए थे उनकी भी इस युद्ध में बहुत बुरी तरीके से मौत हो गई सदाशिव राव भाऊ का गला काटकर और अफगान सैनिक लिए गए और कई दिनों बाद विश्वासराव का शरीर मिला इसके साथ 40000 तीर्थयात्रियों जो मराठा सेना के साथ उत्तर भारत यात्रा करने के लिए गये थे उनको पकड़ कर उनका कत्लेआम करवा दिया। पानी पिला पिला कर उनका वध कर दिया गया। एक लाख से ज्यादा लोगों को हमेशा के लिए युद्ध मे मारे गए यह बात जब पुणे पहुंची तब बालाजी बाजीराव को गुस्से का ठिकाना नहीं रहा वह बहुत बड़ी सेना लेकर वापस पानीपत की ओर चल पड़े जब अहमद शाह दुर्रानी को यह खबर लगी तो उसने खुद को रोक लेना ही सही समझा को कि उसकी सेना में भी हजारों का नुकसान हो चुका था और वह सेना वापस अभी जो भी नहीं लग सकती थी इसलिए उसने 10 फरवरी,1761 को पेशवा को पत्र लिखा कि "मैं जीत गया हूं परंतु मैं यह नहीं लड़ना चाहता था सदाशिवराव भाऊ जी के लिए प्रेरित किया और मैं दिल्ली की गद्दी नहीं लूगा, आप ही दिल्ली पर राज करें मैं वापस जा रहा हूं।" अब्दााली का भेजा पत्र बालाजी बाजीराव ने पत्र पढ़ा और वापस पुणे लौट गए ।परंतु थोड़े में ही 23 जून 1761 को उनकी मौत हो गई डिप्रेशन के कारण क्योंकि इस युद्ध में उन्होंने अपना पुत्र और अपने कई सारे मराठा सरदारों को महान सरदारों को खो दिया था पानीपत के साथ एक बार आता साम्राज्य की सबसे बड़ा दर्द दर्द हुआ और 18 वीं सदी का सबसे भयानक युद हुआ और अंत में यह भारतीय इतिहास का सबसे काला दिन रहा सभी को मार दिया गया वापस लौटने भारत का सबसे बड़ा कई सारी विदेशी ताकतें भारत में आने लगी परंतु 1761 में माधवराव पेशवा पेशवा बने और उन्होंने महादाजी सिंधिया और नाना फडणवीस की सहायता से उत्तर भारत में अपना प्रभाव से से से लाया 1761 से 1772 तक उन्होंने वापस रोहिलखंड पर आक्रमण किया और रोहिलखंड में नजीर दुला के पुत्र को भयानक पूरी तरीके से पराजित किया और पूरे रोहिल्ला को ध्वस्त कर दिया नजीबुदौला की कब्र को भी तोड़ दिया और संपूर्णता भारत में फिर अपना आतंक फैला दिया और उनके सामने झुक गया और दिल्ली को वापस उन्होंने मुगल सम्राट शाह आलम को वापस दिल्ली की गद्दी
पर बैठाया और पूरे भारत पर शासन करना फिर से प्रारंभ कर दिया महादाजी सिंधिया और नाना फडणवीस का मराठा पुनरुत्थान में बहुत बड़ा योगदान है और माधवराव पेशवा की वजह से ही यह सब हो सका वापस मराठा साम्राज्य बना बाद में मराठों ने ब्रिटिश को भी पराजित किया और सालाबाई की संधि की। पानीपत के युद्ध में भारत का इतिहास का सबसे काला दिन रहा। और इसमें कई सारे महान सरदार मारे गए जिस देश के लिए लड़ रहे थे और अपने देश के लिए लड़ते हुए सभी श्रद्धालुओं की मौत हो गई इसमें सदाशिवराव भाऊ इब्राहिम खान गदी, विश्वासराव, जानकोजी सिंधिया, बालाजी बाजीराव की भी मौत हो गई।इस युद्ध के बाद खुद अहमद शाह दुर्रानी ने मराठों की वीरता को लेकर उनकी काफी तारीफ की और मराठों को सच्चा देशभक्त भी बताया।

इस युद्ध में मराठा के लगभग सभी छोटे-बड़े सरदार मारे गए इस संग्राम पर टिप्पणी करते हुए जेएन सरकार ने लिखा है इस देशव्यापी विपत्ति में संम्भवत महाराष्ट्र का कोई ऐसा परिवार ने होगा जिसका कोई भी सदस्य मारा न गया हो !

एक ओर तो महाराज सूरजमल थे कि अपने कट्टर शत्रु मराठों को इसलिए मदद दे रहे थे कि वे स्वदेशवासी और स्वधर्मी हैं। दूसरी ओर आमेर के माधौसिंह और मारवाड़ के विजयसिंह आदि राजपूत राजा थे, जो विदेशी और विधर्मी अब्दाली की विजय का स्वागत कर रहे थे।

2 फरवरी सन् 1760 को अहमदशाह अब्दाली ने महाराज सूरजमल के विरुद्ध भरतपुर की ओर प्रस्थान किया और तारीख 7 फरवरी को उसने डीग को घेर लिया। इस समय महाराज सूरजमल ने एक चाल चली। मराठा सेना की एक टुकड़ी उन्होंने रेवाड़ी की ओर, दूसरी बहादुरगढ़ की ओर भेज दी और जाट-सेना का तीसरा दल अलीगढ़ की तरफ भेज दिया। 17 मार्च को जाट-सेना ने अलीगढ़ को लूट लिया और वहां के किले को नष्ट कर दिया। अब्दाली को डीग का घेरा उठा लेना पड़ा। उसने मेवात में मराठों का पीछा किया। होल्कर भी इस समय महाराज सूरजमल का मित्र बन गया था। सिकन्दरा नामक स्थान पर अब्दाली ने जनरल साहबपसन्दखां से पराजित होने पर उसने भी भरतपुर में शरण ले रखी थी।

सन् 1760 ई. के पूरे साल, महाराज सूरजमल को केवल शस्त्रों से ही लड़ाइयां नहीं लड़नी पड़ीं, बल्कि राजनैतिक चालों से भी अब्दाली का सामना करना पड़ा।

आखिर सन् 1761 ई. में उस युद्ध के आसार प्रकट होने लगे जो भारतवर्ष के इतिहास में पानीपत के दूसरे युद्ध के नाम से पुकारा जाता है। पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने भाई सदाशिव और लड़के विश्वासराव को एक बड़ी सेना देकर भारतवर्ष के भाग्य के अन्तिम निपटारे के लिए रवाना किया। पेशवा ने राजपूताने के समस्त राजाओं के पास हिन्दू-धर्म की रक्षा के नाते युद्ध में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। किन्तु किसी भी राजपूत राजा ने पेशवा के इस आह्वान को स्वीकार नहीं किया। चम्बल के किनारे पहुंचकर जब भाऊ ने महाराजा सूरजमल को, एक लंबा पत्र लिखकर, धर्म के नाम पर सहायता करने के लिए भेजा, तब महाराजा ने एक सच्चे हिन्दू की भांति मराठों के निमन्त्रण को स्वीकार किया और वह 20,000 जाट सैनिकों के साथ मराठों के कैम्प में पहुंच गए।

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-644 मराठा कमाण्डर-इन-चीफ ने आगरे में एक सभा की और उसमें युद्ध-विषयक परामर्श किया गया। उस समय महाराज ने मराठों को बड़ी उत्तम राय दीं और कहा कि हमें लड़ाई किसी छोटे-मोटे सरदार से नहीं लड़नी है । यह युद्ध तमाम मुसलमानों से है और बड़ा भंयकर युद्ध है। इसलिए इसके पूर्व स्त्रियों को किसी सुरक्षित दुर्ग में भेज देना चाहिए। हमारे साथ पैदल सेना, तोपें अत्यधिक हैं और मैदान में हैं। रसद तक का यथोचित प्रबन्ध नहीं है। इसलिए मेरी समझ से अगर कोई दूसरा स्थान न हो सके, तो मेरे यहां किले में पैदल सेना के साथ स्त्रियों, बालबच्चों और सामान को रखना चाहिए। नहीं तो शत्रु सेना कभी भी नष्ट करने में सफल हो सकती है।1 यद्यपि होल्कर वगैरह ने इस बात का समर्थन किया, परन्तु भाऊ ने इसे उचित सलाह न बताकर ऊट-पटांग बातें कीं, जिससे महाराज सूरजमल ने दूसरी बार भी विवेचनापूर्ण एक-एक पहलू को समझाने की कोशिश की, परन्तु सब बेकार हुई। ठीक कहते हैं ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धिः’। अर्थात् नाश होने का वक्त आ जाने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है।

एक दूसरी बात सूरजमल के रुष्ट होने की यह और हुई कि भाऊ ने लालकिला देहली के आमखास की चांदी की छत को उनकी इच्छा के विरुद्ध तुड़वा दिया। महाराज उस छत के एवज में पांच लाख रुपया देने को तैयार थे। पर लालची भाऊ को कहीं उससे भी अधिक का माल उसमें दिखाई दे रहा था। वह अपने हठी और लालची स्वभाव होने के कारण महाराज सूरजमल से बिगाड़ बैठा। छत तुड़वा देने पर भी उसे जब 3 लाख रुपये का ही माल मिला तो महाराज सूरजमल ने फिर कहा कि “आप इस छत को फिर बनवा दीजिए जिससे देहली की प्रजा और आपके प्रति सरदारों का बढ़ा हुआ असन्तोष दूर हो जाए। सहयोगियों की सलाह से राज्य-कार्य कीजिए जिससे शासन के प्रति प्रेम उत्पन्न हो और मैं अब भी कहता हूं कि स्त्रियों को मेरे यहां के किले में भेज दीजिए। क्योंकि भरतपुर के आस-पास में जमींदार खुशहाल हैं इसलिए वहां रसद भी इकट्ठी हो जाएगी। आपको रसद और सैनिकों से मैं पूरी सहायता देता रहूंगा।” महाराज सूरजमल ने यह बात मार्मिक शब्दों में कही थी, परन्तु भाऊ के पत्थर-हृदय पर कुछ भी असर न हुआ। महाराज ने देख लिया कि इस समय इसके सिर पर दुर्भाग्य सवार है और वह बिना कुछ कहे अपने शिविर को लौट आया।

भाऊ इतने ही से सन्तुष्ट नहीं हुआ, किन्तु उसने निश्चय किया कि सूरजमल

1. महाराज ने एक परामर्श यह भी दिया था कि लम्बी मार की तोपों को मैदान में न ले जाया जाये और अब्दाली का सामना मैदान में जमकर नहीं, छापामार लड़ाई से किया जाय - संपादक जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-645 के डेरों को लूट लिया जाय और उसे गिरफ्तार कर लिया जाय। किन्तु महाराज सूरजमल को होल्कर के द्वारा सूचित किए जाने पर षड्यंत्र का पता लग गया और वह उसी रात अपने लश्करे समेत भरतपुर की ओर रवाना हो गये। भाऊ के सैनिकों ने सुरक्षित उनका पीछा किया, लेकिन वह बल्लभगढ़ के किले में पहुंच चुके थे।

पानीपत के मैदान में वही हुआ, जिसकी कि आशंका की जा रही थी। मराठों को बुरी तरह से परास्त होना पड़ा, क्योंकि इस्लाम के नाम पर मुसलमान सब संगठित हो चुके थे। शुजाउद्दौला भी उनकी सेना में मिल गया था। इस लड़ाई में मराठों को भारी हानि उठानी पड़ी। उनके बड़े योद्धा इस युद्ध में मारे गए। शेष जो बचे वे बड़ी बुरी दशा में पड़ते-गिरते भरतपुर पहुंचे। महाराज सूरजमल ने मराठों की पुरानी बातों को भूल करके उनकी बड़ी आवभगत की। ब्राह्मण सैनिकों को दूध और पेड़ा खिलाया जाता था। घायल सैनिकों की सेवा-सुश्रूषा और इलाज किया गया। महारानी किशोरी ने स्वयं उनकी आवभगत में बड़ी दिलचस्पी ली। उस समय महाराज ने प्रजा में मुनादी करवा दी थी कि जो कोई दुखी सैनिक जिसके यहां पहुंचे उसकी यथोचित सहायता की जाये। इस आवभगत में महाराज का दस लाख रुपया खर्च हुआ। बाजीराव पेशवा की मुसलमान स्त्री से जंग बहादुर नाम का एक लड़का था। महाराज ने उसके उपचार का पूरा प्रबन्ध किया, किन्तु वह बच न सका । उस समय महाराज के यहां बड़े-बड़े सरदारों ने आश्रय लिया था। सदाशिव भाऊ की स्त्री पार्वती बाई भी दुर्दिनों के फेर से वहां पहुंच गई थी। महाराज ने उन सबका उचित सम्मान योग्य प्रबन्ध किया और पार्वती बाई और सरदारों को एक-एक लाख रुपया देकर अपनी अधिरक्षता में दक्षिण की ओर भिजवा दिया। अन्य सभी महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों को महारानी किशोरी ने पांच-पांच रुपया और वस्त्र वगैरह देकर विदा किया।

नाना फड़नवीस ने महाराजा सूरजमल के इस सद्व्यवहार के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था -“अब हम ग्वालियर में होल्कर के साथ ठहरे हुए हैं। भरतपुर में हमें सूरजमल ने आराम देने में कोई कसर नहीं रखी। हम 15-20 दिन तक वहां रहे, उन्होंने हमारा बड़ा आदर सम्मान किया और हाथ जोड़कर कहा-मैं तुम्हारे ही घर का हूं, मैं तुम्हारा एक सेवक हूं तथा ऐसे ही शिष्टाचार के अन्य शब्द भी कहे। उन्होंने हमें ग्वालियर तक बड़ी हिफाजत के साथ पहुंचा दिया है। अफसोस है कि उस जैसे बहुत थोड़े मनुष्य होते हैं।” पेशवा यह पत्र पढकर सूरजमल के लिए बड़ा प्रसन्न हुआ।

जब पानीपत की लड़ाई के पश्चात् अब्दाली देहली आया तो वह मराठों को शरण देने के कारण सूरजमल पर चढ़ाई करने की सोचने लगा। नागरमल जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-646 नाम के व्यक्ति को सूरजमल के पास इसलिए भेजा कि यदि सूरजमल कुछ भेंट दे दे तो लड़ाई स्थगित कर दी जाए। महाराज खूब जानते थे कि पठान अभी जल्दी कोई नई लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं। इसलिए मार्च सन् 1761 ई. तक सन्धि के भुलावे में ही अब्दाली को डाले रहे और इसी बीच में आगरे पर अधिकार जमा लिया। शहर और किले की लूट से उन्हें 5,00000 रुपये मिले। ऐसे मौके पर एक लाख रुपया शाह को दे दिया। 21 मई सन् 1761 ई. को अब्दाली अपने देश के लिए प्रस्थान कर गया। अब महाराज सूरजमल को अपने राज्य को बढ़ाने का पूरा अवसर मिल गया। 

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