आध्यात्मिक जीवन में एक शब्द अक्सर सुनने में आता है निष्काम। कई लोग इस शब्द का बहुत अलग-अलग अर्थ लगाते हैं। कुछ तो बहुत ही हास्यास्पद होते हैं जो कहते हैं निष्कामता यानी कर्म से हट जाना। कर्म ना करना। जीवन की हकीकत यह है कि हम बिना कर्म किए रह ही नहीं सकते। कर्म के बिना तो पशु भी नहीं रह सकते। सिर्फ मनुष्य में ही यह संभावना है कि वह अपने कर्मों को अपने हिसाब से परिभाषित कर सकता है।
अधिकांश कर्म हम अपने हित और स्वार्थ के लिए करते हैं। इनका फल भी उतना ही होता है। इस तरह के कर्म को सकाम कर्म कहते हैं। यहीं से निष्काम कर्म की परिभाषा शुरू होती है। निष्काम कर्म उसे कहते हैं जिसके पीछे हमारा कोई निजी हित, निजी स्वार्थ ना जुड़ा हो। कभी कभी कुछ काम ऐसे भी किए जाएं, जिसका हमारे लिए कोई फायदा ना हो। हमेशा याद रखिए दूर तक वे ही कर्म फायदा देते हैं।
कर्म में निष्कामता का भाव होगा तो हमारी संवेदनाएं प्रबल होंगी। हम संवेदनशील बनेंगे। कभी अनजान की मदद, कभी प्रकृति की सेवा, कभी परमात्मा के ध्यान में बैठना, भगवान की पूजा करना लेकिन उनसे कुछ मांगना नहीं, किसी
गरीब की सहायता ऐसे कई कर्म हैं जिनसे आप अपने भीतर निष्कामता का भाव लाने की शुरुआत कर सकते हैं।
कभी कभी ये भी सोचिए कि आप सिर्फ निमित्त हैं, सारा काम कोई और ही करवा रहा है। थोड़ा समय ऐसा निकालें, जिसमें अपेक्षा रहित हो जाएं। जो हो रहा है उसे होने दें। अपने आप को सिर्फ एक माध्यम समझें। किसी भी कर्म में खुद को शामिल ना करें, मतलब खुद के स्वार्थ को ना देखें, फायदा हो रहा है या नुकसान इसका विचार मन में ना लाएं।
कर्म में निष्कामता जड़ भरत से सीखिए। भागवत में कथा है जड़ भरत की। वे कोई भी कर्म हो उसे परमात्मा की इच्छ समझकर करते थे। चिडिय़ा खेत का दाना चुग जाए तो परमात्मा की इच्छा, बाढ़ आ जाए तो परमात्मा की इच्छा। एक बार तो किसी ने उनकी बलि चढ़ाने के लिए उनकी गर्दन पर तलवार भी रख दी, तो भी वे निष्काम रहे। विचलित नहीं हुए। उसे भी परमात्मा की मर्जी ही माना। तो भगवान खुद आ गए उनकी जान बचाने।
हमेशा ना सही लेकिन कभी-कभी हमारे मन में, कर्म में निष्कामता का भाव आएगा तो जीवन में कई उलझनों का जवाब मिल जाएगा। हल मिल जाएगा।
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