हिंदू बनाम हिंदू की लड़ाई

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हिंदू बनाम हिंदू की लड़ाई

Administrator 08-04-2019 18:37:04

अरुण कुमार त्रिपाठी
आज अगर प्रभाष जोशी होते तो अमेरिका की टाइम पत्रिका में प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह को कम सफल (अंडरअचीवर) बताने वाली कवर स्टोरी पर सबसे अच्छा लेख उन्होंने ही लिखा होता। संभवत: उन्होंने तब और बढ़िया लिखा होता जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को टाइम ने एक प्रभावशाली नेता बताते हुए आवरण कथा लिखी थी। भूमंडलीकरण और सांप्रदायिकता उनके प्रिय विषय थे। उन पर खूब लिखते और बोलते थे। उन्होंने दोनों में अंतर्सबंध देखे थे और इसीलिए उनका विमर्श औरों से ज्यादा गहरा और सारगíभत हो जाता था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े स्वदेशी आंदोलन के तमाम लोग उन्हें वैश्वीकरण के विरोध के नाते पसंद करते थे तो वामपंथी आंदोलन से जुड़े लोग उन्हें सांप्रदायिकता और वैश्वीकरण दोनों के विरोध के कारण पसंद करते थे। प्रभाष जी के समकालीन और मालवी मित्र राजेंद्र माथुर की शोक सभा में नामवर सिंह ने रज्जू बाबू के व्यक्तित्व की तारीफ करते हुए कहा था, यही उनकी खूबी थी कि उन पर होने वाली र्चचा में मंच पर एक तरफ निखिल चक्रवर्ती और दूसरी तरफ प्रभाष जोशी हैं। लगभग यही स्थिति प्रभाष जोशी की शोकसभाओं में भी हुई। आस्तिक हिंदू का संप्रदाय विरोधी विमर्श प्रभाष जोशी वामपंथियों की तरह संघ विरोध के प्रशिक्षण से नहीं आए थे। वे उस सर्वोदयी परंपरा से आए थे, जिनके आधे लोग अब संघ के आंगन में काल कलौटी खेलने में मजा लेते हैं। सर्वोदयी ही क्यों, समाजवाद की भी एक शाखा ने संघ के वृक्ष पर अपनी कलम लगा रखी है। वही शाखा जो 1996 में एनडीए के निर्माण में सहायक रही और (बिहार के मुख्यमंत्री) नीतीश कुमार जैसे लोगों की बेचैनियों के बावजूद आज तक संघ के राजनीतिक संगठन से कोई न कोई संबंध बनाए हुई है। प्रभाष जोशी मार्क्‍सवादी नहीं थे, वे लोहियावादी नहीं थे और न ही वे उन अर्थों में सेक्यूलर थे, जिसका मतलब नास्तिकता और वैज्ञानिक दृष्टि से होता है। वे एक आस्तिक हिंदू थे। फिर भी वे अपने दौर के तमाम संपादकों, बुद्धिजीवियों से आगे बढ़कर सांप्रदायिकता विरोधी विमर्श कर सके तो यह तमाम लोगों के लिए दगेबाजी थी और तमाम लोगों के लिए चमत्कार। जिन्होंने दगेबाजी माना, वे उनके विरोध में विष वमन करते रहे और कहते रहे कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा थी, जो पूरी नहीं हुई तो संघ के खिलाफ लट्ठ उठा लिया। लेकिन जिन लोगों ने छह दिसम्बर 1992 के बाद उनका नया जन्म माना, वे उनके करीब होते चले गए। राजकुमार जैन जैसे जुझारू समाजवादी नेता से लेकर नामवर सिंह जैसे बुद्धिजीवी और आलोचक इसी तरह के उदाहरण हैं। कैसे देख सके ˜नया राष्ट्रवाद के पार यह सब कैसे हुआ? इसे प्रभाष जोशी की गांधी के प्रति आस्था को जाने बिना नहीं समझा जा सकता। संभवत: वे अखबार निकालने से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता और पारिवारिक जीवन सभी मोर्चो पर महात्मा गांधी को कभी भूले नहीं। यही कारण था कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं के करीबी होने के बावजूद और अयोध्या में कारसेवा रोकने संबंधी तमाम वार्ताओं में हिस्सेदार होते हुए भी वे हिंदुत्व को उस रूप में नहीं देख पाए जैसा आडवाणी और उनका संघ परिवार दिखा रहा था या जैसा उनके आशीर्वाद से हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़े पैमाने पर आए पत्रकार चित्रित कर रहे थे। लेकिन सभी पत्रकार आडवाणी द्वारा लाए गए हों, ऐसा नहीं था। बड़ी संख्या में पत्रकार ऐसे थे, जिन्होंने हिंदी समाज में हिंदू सांप्रदायिकता का ऐसा उन्माद कभी देखा नहीं था। वे जहां भी जिस अखबार में थे (चैनल तो थे ही नहीं) ˜नया राष्ट्रवाद
तैयार करने में लगे थे। आजकल हिंदी के एक राष्ट्रीय दैनिक का नेतृत्त्व कर रहे एक पत्रकार ने बताया कि वे उस समय उत्तर प्रदेश के एक शहर में एक अखबार के संपादक थे। उन्होंने जनभावनाओं का ऐसा समर्थन किया कि जब बाबरी मस्जिद गिराई गई तो लोग उनके कार्यालय के सामने आ गए और विशेष परिशिष्ट का इंतजार करने लगे। इसी बीच, जब वे कार्यालय से बाहर आए
तो लोगों ने उन्हें हाथों हाथ उठा लिया और उन्हें लगा कि फ्रांस की राज्य क्रांति हो गई है। ऐसे तमाम पत्रकार और संपादक हिंदी इलाके में बिखरे पड़े थे जो शिला पूजन, पादुका पूजन, कारसेवा और रथयात्राओं से अभिभूत थे और उसके माध्यम से 1947 में छूट गए भारत के हिंदूकरण के अधूरे कार्यक्रम को पूरा होते देख रहे थे पर ऐसा जैसी छोटी जगहों के क्षेत्रीय पत्रकारों के साथ ही नहीं था। दिल्ली में राष्ट्रीय अखबारों और राष्ट्रीय पत्रकारों के साथ भी ऐसा था। ˜इंडियन एक्सप्रेस' की बगल की इमारत से धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई में खास मदद नहीं मिल रही थी। हिंदी-अंग्रेजी दोनों पत्रों पर राष्ट्रवाद का नशा था। बगल की इमारत तो छोड़िए अपनी इमारत में ही प्रभाष जोशी को ज्यादा समर्थन नहीं था। न तो अंग्रेजी अखबार का नेतृत्त्व वैसा था, न ही उनके अपने साथी वैसे थे; जो हिंदुत्व के इस उभार का विरोध करें। विरोध छोड़िए वे उल्टे उसको सफल बनाने के अभियान में लगे हुए थे। यह बात अलग है कि स्वाधीनता संग्राम की परंपरा से जुड़े कुछ राष्ट्रीय पत्रों ने जरूर मोर्चा संभाल रखा था और उनमें कांग्रेसी से लेकर वामपंथी तक शामिल थे। पर जिस हिंदी इलाके को हिंदुत्व की सांप्रदायिकता ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था, उसे जगाकर होश में लाने का काम प्रभाष जोशी ने बड़ा जोखिम उठाकर किया। वे लोहिया के मुहावरे में ˜हिंदू बनाम हिंदू की लड़ाई लड़ रहे थे। उनके तमाम सहयोगी लंबे समय तक कहते रहे : ˜दरअसल वे इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे विहिप और सरकार के बीच समझौता करा रहे थे लेकिन लोगों ने मस्जिद गिराकर उन्हें धोखा दिया। इसलिए उन्होंने इस मामले को निजी स्तर पर ले लिया। फिर वे ही कहते थे कि अरे प्रभाष जी अपने को अलग दिखाने के लिए थोड़ी लीला करते हैं और इससे अखबार का सकरुलेशन भी बढ़ता है पर वे भीतर से वही हैं, जो संघ वाले हैं। थोड़े दिनों में शांत हो जाएंगे।
कट्टरता के विरुद्ध उदार परंपरा लेकिन वे यह नहीं समझ पाए कि भारतीय समाज के भीतर एक उदार परंपरा है, जो हिंदुओं में भी है। यही मुसलमानों में है, सिखों में है और अन्य धर्म-पंथ के अनुयायियों में भी है। वही उदार परंपरा जरूरत पड़ने पर कट्टर और आततायी परंपरा के विरु द्ध उठकर खड़ी हो जाती है। उस परंपरा के प्रतिनिधियों को सबसे कठिन लड़ाई अपनों से ही लड़नी होती है। उसमें वे जीतें, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस समाज में उदार परंपरा कितनी गहरी है? हिंदू समाज में उदारता की परंपरा गहरी है, इसीलिए अगर लालू प्रसाद ने आडवाणी का रथ रोका तो कहीं मुलायम सिंह यादव तो कहीं कांशीराम ने मिलकर 1993 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा को कड़ी शिकस्त दी। उधर, प्रभाष जोशी ने अपने उन तमाम साथियों को खामोश कर दिया जो उन्हें पाखंडी मानते थे। गांधी को भी पाखंडी कहने वाले बहुत सारे लोग हैं। हमारे तमाम मार्क्‍सवादी मित्र आज भी गांधी बनाम भगत सिंह की बहस करते रहते हैं और गांधी को गाली देकर अपनी प्रगतिशीलता कायम करते रहते हैं। प्रभाष जोशी इन दोनों महापुरुषों की संश्लेषण परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे। वे थे तो हिंदी जगत के सांप्रदायिक अंधेरे में उजास हो सका। आज होते तो बताते कि उदारीकरण ने किस तरह पहले मनमोहन सिंह को और अब नरेंद्र मोदी को अपनी कठपुतली बनाकर पेश किया है। कॉरपोरेट जगत नरेंद्र मोदी के जिस रूप पर मुग्ध है और आडवाणी जिनके लिए पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की किताब पर सफाई पेश कर रहे हैं और जिन पर लिखने से मीडिया बच रहा है, उनके खिलाफ प्रभाष जोशी होते तो समय रहते कलम उठा लेते। इस कारण से कि वे जनता की तबाही और सांप्रदायिकता, दोनों को आज के वैश्वीकरण के भीतर देखते थे। प्रभाष जोशी को याद करने का अर्थ उनकी चेतना से जुड़ना है।राष्ट्रीय सहारा 
अरुण त्रिपाठी प्रभाष जोशी की टीम के सदस्य रहे है 

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