क्या आज सिर्फ अंग्रेजी बोलना बौद्धिकता का प्रमाण है

5 मई को पंजाब किंग्स इलेवन क्रिकेट मैच पटना के गांधी मैदान में "फिट टू मूव, फिट टू वोट" मैराथन का आयोजन कानून के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए सम्मेलन का आयोजन चंपारण में मतदाता जागरूकता बिहार में दूसरे चरण के मतदान पर रिपोर्ट उच्च न्यायालय के आदेषो के बाद राष्ट्रीय उच्च मार्ग पांच परवाणु शिमला पर चला प्रशासन का पीला पंजा राजस्थान में पहले चरण के लोकसभा चुनाव संपन्न Jodhpur : कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जय राम रमेश जोधपुर पहुंचे भाजपा ने हुबली की घटना पर कर्नाटक सरकार पर साधा निशाना ओडिशा: झारसुगड़ा में नाव हादसा श्रमिक मतदाता जागरूकता कार्यक्रम चित्रकूट मतदाता जागरूकता -मिर्जापुर इंदौर साइबर सुरक्षा माँ पर अभद्र टिप्पणी पर बोले चिराग पासवान जीत के प्रति आश्वास हैं पप्पू यादव प्रदेश मतदान आज का राशिफल Lok Sabha Election 2024: प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के दौरान विपक्ष पर जमकर निशाना साधा। No Entry के सीक्वल में आइये जानते है कौन से यंग सितारे नजर आएँगे कर्नाटक-कॉलेज कैंपस में हुई वारदात

क्या आज सिर्फ अंग्रेजी बोलना बौद्धिकता का प्रमाण है

Deepak Chauhan 11-05-2019 15:34:31

किसी भी परिस्थिति में वकती को अपने निर्वाह के लिए दूसरे अनजान व्यक्ति के साथ करना जरुरी होती है। लेकिन आज के समय में लोगो के मन में भाषा को लेकर कुछ ऐसी धारणा बन गयी है जिसके चलते लोग अपनी मात्र भाषसे को भुला दूसरी भाषा को अपनाते हुए बात करना अपनी शान समझते है, तथा उन्हें लगता है की वो दूसरे से ऊँचे है। 

कुछ समय पहले एक वीडियो वायरल हुआ था. इसमें दिल्ली के शॉपिंग सेंटर में कुछ लड़कियां एक महिला को माफ़ी मांगने को कह रही हैं. लड़कियों के मुताबिक उस महिला ने उनमें से एक लड़की के छोटे कपड़ों की वजह से आस-पास के लड़कों को उसका रेप करने के लिए कहा था. वीडियो ने एक बार फिर उस सोच को सामने रखा जहां लड़की के कपड़ों को उसके चरित्र और उसके खिलाफ होने वाले अपराधों से जोड़ दिया जाता है। इस वीडियो पर आए कमेंट्स के ज़रिए और फिर अख़बारों में भी इस मसले पर काफी बहस हुई. पर इसमें कुछ और भी था जो हमारा ध्यान अपनी ओर खींच सकता था. वह था इस वीडियो की भाषा. इस पूरे वीडियो में ज़्यादातर महिलाएं, ज़्यादातर वक्त सिर्फ अंग्रेज़ी में ही बात कर रही हैं, इस बात की परवाह किये बिना कि उनकी भाषा सही है या नहीं और वे उसमें बात करते हुए सहज हैं या नहीं। 

अगर ध्यान दिया जाए तो यह स्थिति सिर्फ इन महिलाओं की नहीं, बड़े शहरों में रहने वाले ज्यादातर हिंदुस्तानियों की है. भारतीयों की इस प्रवृत्ति पर नॉएडा की एक एमएनसी में काम करने वाली कानपुर की रेणु मित्तल अपना एक अनुभव सुनाती हैं. ‘कल मैं दफ़्तर के पास ही एक कैफ़े में गई तो वहां मेरा अभिवादन अंग्रेज़ी में किया गया. पानी और मेन्यू देते हुए मेज़बान महिला ने दोस्ताना अंदाज़ में मुझसे कहा कि लगता है मैं धूप में चल कर आ रही हूं. लहज़े और बातचीत से साफ दिख रहा था कि वह अंग्रेज़ी में उतनी सहज नहीं है और मजबूरी में ही इस भाषा में बात कर रही थी. मैं सोचती रही कि अगर ये मुझसे हिंदी में यही बात कहती तो मुझे ज्यादा अच्छा लगता.’रेणु आगे कहती हैं, ‘कुछ देर में इससे बिलकुल उल्टी एक और घटना हुई. कैफ़े में जिनसे मुझे मिलना था, उन्होंने आते ही कहा, ‘नमस्ते’. उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों और क़स्बों में यह सबसे आम संबोधन है. लेकिन फिर भी मुझे ऐसा सुनना बड़ा अजीब सा लगा.’ रेणु के ऐसा सोचने में कुछ भी अजीब इसलिए नहीं है क्योंकि नोएडा-दिल्ली जैसे शहरों में संबोधन और संपर्क की भाषा काफी हद तक अंग्रेजी मानी जाने लगी है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या इन शहरों में रहने वाले लोग इतने अलग-अलग परिवेशों से हैं कि वे सिर्फ अंग्रेज़ी में ही एक-दूसरे के साथ संवाद कर सकते हैं? जवाब है नहीं. तो फिर कैसी भी अंग्रेज़ी में बोलने का फ़ितूर क्यों?


अंग्रेजी का फितूर 

क्या ऐसा इसीलिए है कि अंग्रेज़ी में बात करके हम सामने वाले को यह संदेश देते हैं कि हम उच्च शिक्षित, कुलीन वर्ग से आते हैं? क्या दूसरों से बेहतर या उनके बराबर दिखने की चाह जिन्हें हम अपने से बेहतर मानते हैं, हमारी वर्ण व्यवस्था का ही एक विकृत स्वरूप नहीं है? लेकिन यह भी सच है कि इस चाह के होने की पूरी ज़िम्मेदारी सिर्फ उन लोगों के कंधे पर नहीं डाली जा सकती, जो ऐसा चाहते हैं. इसके पीछे एक पूरा तंत्र, एक व्यवस्था और पूरा समाज काम कर रहा है. फ़र्ज़ कीजिए, आप एक पांच सितारा होटल के रिसेप्शन या किसी बड़े निजी अस्पताल में खड़े हैं. वहां अगर आप अंग्रेजी में अपना परिचय देते हैं तो बहुत मुमकिन है कि रिसेप्शनिस्ट का व्यवहार आपके प्रति अलग
होगा. ऐसे में अगर आप ग़लत ही सही, लेकिन अंग्रेज़ी बोल सकते हैं तो शायद वही बोलेंगे। लेकिन अंग्रेज़ी बोलने वालों को अधिक बौद्धिक या कुलीन समझे जाने की जड़ें इससे कहीं आगे जाती हैं. इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स में रिसर्च फैलो दीपिका सारस्वत इसके लिए अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद के रास्ते भारत में आई आधुनिकता को ज़िम्मेदार ठहराती हैं. ‘अंग्रेज़ों के भारत में आने से पहले हम एक परंपरागत समाज थे. हमारे यहां आधुनिक विज्ञान, तकनीक और लोकतंत्र जैसी सामाजिक व्यवस्था और विचार सबसे पहले अंग्रेज़ी में ही आए. पश्चिम का पुनर्जागरण उनकी भाषा में हुआ, जबकि हमारा पुनर्जागरण (जिसे सही मायनों में पुनर्जागरण नहीं कहा जा सकता) एक विदेशी भाषा में हुआ. यहां भारत के परंपरागत ज्ञान और आधुनिक ज्ञान के बीच ऐसी कोई स्थानीय कड़ी नहीं थी, जैसी ब्रिटेन या फ़्रांस में थी. अपनी भाषाओं से आगे बढ़कर अंग्रेज़ी पढ़ने-समझने वालों को ही पहली बार आधुनिक समाज की विशेषताओं और अच्छाइयों का पता चला.’ ऐसे में परंपरागत भारतीय समाज की बुराइयों के साथ-साथ - जिनमें सामंतशाही, छुआछूत या महिलाओं को दोयम दर्ज़े पर रखा जाना शामिल है - उसकी संस्कृति और भाषा को भी नीची नज़र से देखा जाना शुरू हो गया। 

इसके बाद अंग्रेजी हमारे यहां आधुनिक और प्रगतिशील दिखने का एक शॉर्टकट भी बन गई. हमने आधुनिकता औऱ प्रगतिशीलता का कोई अपना रास्ता निकालने के बजाय एक आसान तरीक़ा चुना और एक विदेशी भाषा के ज़रिए वहां पहुंचने की कोशिशों में लग गये. बेशक इसके पीछे दुनिया में भारत की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की भी भूमिका रही. और दुनिया के सामने हिंदुस्तान को असभ्य, आदिम और अंधविश्वासी समाज के तौर पर पेश किया जाना भी. लेकिन अब स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि भारत में ही हिंदी या अन्य स्थानीय भाषाओं में बात करने वालों को उतना बौद्धिक या महत्वपूर्ण नहीं माना जाता। भाषा सिर्फ संप्रेषण का माध्यम ही नहीं, बल्कि इससे आगे जाकर संस्कृति और विचार की वाहक भी होती है. मिसाल के लिए हिंदी का साहित्य हिंदी बोलने वाले समाज की परंपराओं, जीवनशैली, समस्याओं और संघर्षों के बारे में ही ज्यादा होगा. यही बात बोलचाल में भी देखी जा सकती है. हिंदी में आप, तुम और तू जैसे शब्दों का होना दिखाता है कि सामने वाले व्यक्ति के साथ आपके संबंध को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है. लेकिन अंग्रेज़ी में संबोधन के लिए सिर्फ एक शब्द ‘यू’ होता है जो बताता है कि यहां इस तरह के बंटवारे की संभावना कम है. यानी जब हम भाषा बदल रहे होते हैं, तो अनजाने में अपने विचार, संस्कृति और फिर समाज को भी बदल रहे होते हैं। इस मामले में बंगाल को कुछ हद तक अपवाद कहा जा सकता है. हालांकि वहां भी अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति प्रेम बहुत हद तक अंग्रेज़ी और उपनिवेशवाद की वजह से है. हम जानते हैं कि कलकत्ता भारत में अंग्रेज़ी सम्राज्य की पहली राजधानी था. अंग्रेज़ी के ज्ञान, पुनर्जागरण और पश्चिमी साहित्य के ज़रिए आधुनिकता सबसे पहले बंगाल में ही आई. लेखक और राजनीतिक विचारक मानश भट्टाचार्जी इसे इस तरह समझाते हैं, ‘बंगालियों में अपनी भाषा को लेकर हीन भावना इसलिए भी नहीं आई क्योंकि इसी समय रवींद्रनाथ ठाकुर और सत्यजीत रे जैसे नामों ने बांग्ला साहित्य और सिनेमा को दुनिया की नज़र में लाकर बंगालियों को अपनी भाषा पर गर्व करने का मौक़ा दे दिया.’इसके अलावा प्रिंटिंग प्रेस भी सबसे पहले बंगाल में आई जिससे बांग्ला भाषा और साहित्य को बड़ा फ़ायदा हुआ. बांग्ला से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से बांग्ला में होने वाले अनुवादों से भी इस भाषा के विचारों को स्थानीय से वैश्विक होने में मदद मिली. हालांकि मानश कहते हैं कि अब बंगाली भद्रलोक भी अपनी भाषा के प्रति यह सम्मान खोता जा रहा है। 

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :