ठेठ राजस्थानी लिबास में लचकता एक छरहरा बदन, गालों तक लटकी लटें, तीखे नैन-नक्श, सुर्ख लिपस्टिक से सने होठ, गले में दमकते गहने और सिर पर दसियों चरी (पानी भरने के कलश) रख खड़ताल की आवाज़ पर अपनी कटीली आईब्रोज को मटकाती एक खूबसूरत ‘औरत’ को लोग जब मंच पर देखते थे तो किसी के बताने पर ही पता चलता था कि दरअसल ये एक मर्द है.
जो पहली बार देखते हैरत से देखते रहते और उनमें से कई उसे फिर से देखने के लिए जैसलमेर तक का सफ़र किया करते. अपने जिस्म की लचक और चुलबुले अंदाज से लोगों को जैसलमेर तक का सफर कराने वाला ये हसीन मर्द हमसे महज 38 साल की उम्र में विदा लेकर एक लंबे सफर पर निकल गया.
गम के इस तूफान में इस ‘औरत’ का जाना राजस्थान के धोरों (रेत के पहाड़) से एक ऐसे टीले का उड़ जाना है जो अगली किसी सुबह कहीं और जाकर नहीं बैठेगा.
हरीश कुमार को हम ‘क्वीन हरीश’ ही लिखें तो शायद ये उनकी आत्मा को शांति देने का अच्छा तरीका होगा. ऐसा इसीलिए क्योंकि हरीश शारीरिक तौर पर भले ही एक मर्द थे लेकिन नृत्य के दौरान महिला वेश-भूषा की दी हुई पहचान का ही असर था कि आम दिनों में भी वह ‘क्वीन हरीश’ लिखी टी-शर्ट पहना करते थे और इसी टी-शर्ट को पहन वह नृत्य सिखाया करते थे.
जैसलमेर जैसे गरीब और अनपढ़ जिलों में जहां महिलाओं को आज भी अपने बुनियादी हकूकों का पता नहीं है, वहां हरीश ने एक ऐसी महिला को अमर कर दिया है जो दरअसल मर्द है.
हरीश का औरत बनकर नाचना शुरुआत में भले उनकी मजबूरी रही हो लेकिन ऐसे कलाकारों का कभी समाज के विकास और उनकी कला के माध्यम से नौजवानों पर हो रहे मनोवैज्ञानिक असर के योगदान का अध्ययन होना ही चाहिए कि औरतों के लिए लगातार बदरंग और खुरदुरी होती दुनिया में एक लड़के का लड़की बन जाना कितना अप्रत्याशित है?
किसी लड़के के लिए यह कितना मुश्किल या आसान रहा होगा कि वह अपनी शारीरिक प्रकृति के खिलाफ जाकर अपने डांस से मंच पर एक ऐसा जादूई संसार की रचना कर रहा है जो उसके जाने के बाद भी उसी में फंसता दिखाई दे रहा है. कहते हैं कि अकेले जापान में ‘क्वीन हरीश’ के दो हजार से ज्यादा शिष्य हैं.
इससे भी बड़ा कमाल है कि सामंती और मर्दवादी राजस्थानी समाज ही नहीं पूरे देश ने हरीश को औरत के वेश में सिर-माथे पर लिया. कमाल इसीलिए भी कि लोक कलाकारों के लिए प्रसिद्ध पश्चिमी राजस्थान से बहुत कम महिला लोक गायकों और नृत्यांगनाओं को हम आज मंचों पर देख रहे हैं.
केसरिया बालम गीत को
हिंदी सिनेमा की मशहूर आवाज़ों के अलावा हाल ही के दिनों में किस लोक गायिका ने गाया है जो राजस्थान से ताल्लुक रखती है? अगर हैं भी तो उन्हें वो रुतबा नहीं मिला जो बीते कुछ सालों में राजस्थान के मर्द लोक कलाकारों के हिस्से आ रहा है.
जैसलमेर के मांगणियार कलाकार देबू खान क्वीन हरीश को याद करते हुए कहते हैं, ‘वो एक गरीब परिवार में पैदा हुआ, कारपेंटर का काम किया, पोस्ट ऑफिस में भी काम किया और इतने के बाद भी कड़ी मेहनत से डांस सीखा. हरीश का जाना हमारी आत्मा का चले जाना है. यह अद्भुत ही है कि एक लड़के ने मजबूरी में लड़की बनकर नाचना शुरू किया और इतना मशहूर हो गया कि पूरा देश उसे याद कर रहा है.’
बू खान आगे कहते हैं, ‘हरीश का डांस बिजली की तरह था. उनकी कला का ही जलवा था कि 60 देशों में हरीश परफॉर्म कर चुके थे और यहां भी कई देशों के बच्चे उनसे सीख रहे थे.’
जैसलमेर के प्रसिद्ध लोक कलाकार और हरीश के साथ कई शो कर चुके दारे खान कहते हैं, ‘हरीश सुथार जाति से ताल्लुक रखते थे इसीलिए उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कलाकार की नहीं थी. उन्होंने अपने शौक से ही डांस सीखा था. मांगणियार जाति के लोगों ने हरीश को काफी सपोर्ट किया. उनके निधन से मरुस्थल में एक जगह खाली हुई है जिसे हम लोग कभी नहीं भर पाएंगे.’
उन्होंने कहा, ‘हरीश के साथ मैंने कई शो किए थे. वह दूसरे कलाकारों की बहुत कद्र करते थे. हरीश के नहीं होने से 30-40 मांगणियार कलाकार भी अनाथ हुए हैं. हरीश प्रसिद्ध राजस्थानी लोकनृत्य कालबेलिया, चरी, चकरी, भवई, तराजू, घूमर और तेरह ताली जैसी शैलियों में नृत्य किया करते थे.’
मुंशी प्रेमचंद ने कर्मभूमि में लिखा है, ‘पुरुषों में थोड़ी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करने पर भी हटा नहीं सकता. वह पशुता उसे पुरुष बनाती है. विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है. जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा. वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया इन्हीं आधारों पर सृष्टि थमी हुई है और ये स्त्रियों के गुण हैं.’
क्या क्वीन हरीश ने कर्मभूमि पढ़ी होगी, जहां तक मेरा अंदाजा है, बिल्कुल नहीं. लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि डांस करते वक्त हरीश के चेहरे से स्नेह और वात्सल्य झलकता था. एक कलाकार के तौर पर शायद वह पूर्ण विकास को पहुंच चुका था और स्त्री होकर अपने रचे उस संसार की यात्रा पर निकल गया.
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