अरुण कुमार पानीबाबा
उत्तर भारत में से पंजाब को अलग अंचल मान लें तो शेष इलाके (पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान बुंदेलखंड वगैरा) में शाम के भोजन में पराठा खाने की परंपरा रही है. राजस्थान के कुछ इलाकों में इस पराठे को टिकड़ा भी कहा जाता है. ऐसा टिकड़ा मोठ या चने का आटा मिला कर बनाया जाता है.
हाल में गुजरे वक्तों तक दिल्ली शहरी समाज के परिवारों में शाम के भोजन में पांच छह किस्म के पराठे लगभग अनिवार्य जैसे ही हुआ करते थे. गेहूं के सादे और गेहू, चना के मिस्से या बेझड़ (गेहूं+जौं+चना) के पराठे तो साल भर नियमित रूप से खाये जाते थे बाकी समय मौसम के अनुसार जैसे सर्दियों में मक्का, बाजरी के पराठे और मेथी. बथवे के शाक युक्त पराठो का चलन था.
कुल मिलाकर हिसाब लगायें तो देश भर में कम से कम सौ किस्म के पराठों का चलन तो अवश्य सूचीबद्ध किया जा सकता है.
अपनी अनेक महत्वांक्षाओं में एक इच्छा यह हुआ करती थी कि समाजवादी आंदोलन के वित्तीय सहयोग के लिए कलकत्ता, बंबई जैसे बड़े शहरों में पराठा-शतक नाम की दुकानें या ढाबे खुलवा देंगे. हम इस कल्पना को साकार करते उसके पहले ही समाजवादी आंदोलन न जाने कब गंगा की बाढ़ में बह गया.
दो एक बरस पुरानी बात है दिल्ली की जामा मस्जिद की तरफ जाना हुआ था. वहां देखा की दिल्ली के बावर्ची अंडे का भरवां पराठा बनाने की विधि ही भूल गये है. जहां तक हमें याद है, 1960 के दशक तक दरीबें से चित्तली कब्र तक आठ दस बावर्ची तो अवश्य दिखाई देते थे जो दुहरी तह के पराठे का मुंह चिमटे और चाकू की मदद से खोल कर अंडे-प्याज, हरि मिर्च का घोल पराठे में भर देते और खस्ता पराठा सेंका करते थे. सब प्रकृति की माया है अब तो न कद्रदान बचे है और न ही बनाने वाले.
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